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रंगमंच पर कविता की दस्तक

ईश्वर शून्य, रंगकर्मी भारतीय रंगमंच में कथ्य के साथ लगातार प्रयोग किये जाते रहे हैं, जिसकी वजह से साहित्य की विभिन्न विधाओं- उपन्यासों, कहानियों और कविताओं के रंगमंच की भी अपनी एक पहचान बनी. कहानी-उपन्यास का रंगमंच तो मौजूद रहा है, किंतु कविताओं का मंचन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है, जिसकी वजह शायद कविता […]

ईश्वर शून्य, रंगकर्मी
भारतीय रंगमंच में कथ्य के साथ लगातार प्रयोग किये जाते रहे हैं, जिसकी वजह से साहित्य की विभिन्न विधाओं- उपन्यासों, कहानियों और कविताओं के रंगमंच की भी अपनी एक पहचान बनी. कहानी-उपन्यास का रंगमंच तो मौजूद रहा है, किंतु कविताओं का मंचन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है, जिसकी वजह शायद कविता की भाषा का दुरूह होना भी है.
अक्सर कविता अब पढ़ी जानेवाली चीज मानी जाने लगी है. इधर सिनेमा ने भी कविता और भाषा को लगातार नुकसान पहुंचाया है. फिलहाल तो कविताओं का मंचन करते समय उसको अक्सर डांस ड्रामा में बदल दिया जाता है, जो पारंपरिक नृत्य नाटिका का ही एक रूप है.
इस संदर्भ में कविताओं की नृत्य-संगीत से सजी नृत्य नाटिका रूपी प्रस्तुतियों को ले सकते हैं. किंतु आधुनिक भाषा, दृश्य संरचना और रंगमंचीय मुहावरों के साथ कविता की प्रस्तुति कम ही दिखती है. ऐसी कविताएं भी कम मंचित होती हैं, जिनमेंं आम जन की पीड़ा और आक्रोश की अभिव्यक्ति हो.
इसी संदर्भ में पुंज प्रकाश के निर्देशन में धूमिल की कविता ‘पटकथा’ का जिक्र जरूरी है. ‘पटकथा’ सुदामा पांडे धूमिल की लंबी कविता है, जिसमें एकल अभिनय किया है आशुतोष अभिज्ञ ने. धूमिल एक जनवादी कवि हैं.
धूमिल की कविताएं लोकतंत्र, राजनीति और बदलाव के इर्द-गिर्द ही संवाद रचती हैं. ‘पटकथा’ सही मायने में जनता की कविता है, उस जनता की आवाज है, जिसके लिए राजनीति एक नासूर बन चुकी है. उसे बुरे और थोड़े बुरे में से ही किसी एक को चुनना है. इसके अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं है.
‘पटकथा’ एक राजनीतिक मोहभंग की कविता है, जो नेहरू युग के समाप्त होने और चीनी आक्रमण के बाद शुरू हुआ था. चारों तरफ भुखमरी, बेकारी और भयंकर त्रासदी थी. आजादी के बाद देखा गया सपना एक मरीचिका साबित हो गया था. इस समय यह संकट और भी गहरा गया है. तब बाहरी युद्ध था और अब आंतरिक युद्ध, जिसमें सुविधाभोगी वर्ग अपराधियों की तरह शामिल है.
‘पटकथा’ की शुरुआत अभिनेता के हाथ में तिरंगे झंडे से होती है, जो इशारा कर देता है कि कविता देशकाल के बारे में है. यह दृश्य राष्ट्रवाद की एक इमेज बन जाता है, जहां देश के नाम और झंडे का इस्तेमाल केवल निजी स्वार्थों के लिए ही किया जाता है. प्रस्तुति में छोटी-छोटी वस्तुओं का इस्तेमाल व्यापक अर्थ में किया गया है. एक दृश्य में अभिनेता दर्शकों को विभिन्न रंगों की लॉलीपॉप चुनने को कहता है. यह दृश्य भारत की राजनीतिक पार्टियों और परिदृश्य का सहज ही खुलासा करता है.
अभिनेता बिना किसी बड़े सेट के केवल देह और वाचन से कविता के अर्थों को उद्घाटित करता है. दरअसल, यह भारतीय रंगमंच की जरूरत है कि कम साधनों में प्रभावी कथ्य कहीं भी जैसे चौपाल, स्कूल, खेत, बाजार आदि प्रस्तुत किया जा सके. बड़े सभागारों, महंगे उपकरणों, चकाचौंध रोशनी से भारतीय रंगमंच को निकालकर जनता तक ले जाना जरूरी है. हमारे लोक रंगमंच में अभिनेता पुरानी फटी हुई धोती पहनकर आता है और लोग उसे राजा मान लेते हैं.
रंगमंच विशुद्ध अभिनेता का माध्यम है. घंटे भर से ज्यादा की प्रस्तुति में आशुतोष का पूरी ऊर्जा के साथ अभिनय उनकी रेंज और काबिलियत साबित करता है. अभिनेता दर्शकों से सीधे संवाद स्थापित करता है, जिससे दर्शक भी प्रस्तुति का हिस्सा बन जाता है.
निर्देशक कहीं-कहीं प्रस्तुति को कुछ क्षण के लिए रोक भी देते हैं. हम वहां अभिनेता को पानी पीते या कोई सामान उठाते-रखते देखते हैं, जो कविता को अतिनाटकीय होने से भी बचाता है. आवाज का अलग-अलग ध्वनियों और अर्थों में प्रयोग निर्देशक और अभिनेता की कल्पनाशीलता का परिचायक है.
निर्देशक ने रोजमर्रा की छोटी-छोटी चीजों का इस्तेमाल अलग-अलग बिंबों, दृश्यों और स्थितियों को रचने में किया है. अभिनय और प्रस्तुति में यथार्थवादी शैली का इस्तेमाल किया गया है, जिस पर नुक्कड़ नाटक की शैली का भी असर नजर आता है.
यह प्रस्तुति को प्रभावी और असरकारक बनता है. चंूकि कविता लंबी है और प्रस्तुति में शब्दों और ध्वनियों पर अधिक ध्यान भी दिया गया है, इससे वह कहीं-कहीं बोझिल भी लगने लगती है. कुछ हिस्सों में जुड़ाव और लय की कमी भी नजर आती है. फिर भी यह प्रस्तुति अपने तेवर और कलेवर के लिए याद किये जाने योग्य प्रस्तुतियों में से एक है.

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