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सोशल मीडिया रहा चुनाव में हीरो, अब सुशासन का बने हिस्सा

सोशल मीडिया के प्रभाव की व्यापकता का एक प्रमाण चुनावों में नेताओं व राजनीतिक दलों द्वारा इस प्लेटफॉर्म का गंभीरता से किया गया उपयोग है. विशेष रूप से युवाओं को आकृष्ट करने में इसकी विशेष भूमिका रही. कई देशों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल सरकार व जनता के बीच सार्थक संवाद के लिए किया जाता […]

सोशल मीडिया के प्रभाव की व्यापकता का एक प्रमाण चुनावों में नेताओं व राजनीतिक दलों द्वारा इस प्लेटफॉर्म का गंभीरता से किया गया उपयोग है. विशेष रूप से युवाओं को आकृष्ट करने में इसकी विशेष भूमिका रही. कई देशों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल सरकार व जनता के बीच सार्थक संवाद के लिए किया जाता है. अब जन-प्रतिनिधियों द्वारा जनता से संपर्क करने और उसकी समस्याएं जानने के लिए इसके प्रयोग की जरूरत पर विशेष प्रस्तुति..

अगर सोशल मीडिया न होता तो क्या निर्भया के साथ हुए नृशंस बर्ताव का मुद्दा इस तरह देश की आत्मा को झकझोरता? अगर फेसबुक, ट्विटर और मोबाइल संदेश न होते तो क्या अन्ना आंदोलन में अनायास ही जुट गया जनसमुद्र इस तरह घरों से बाहर निकलता? अगर तकनीक का मायाजाल न होता तो क्या संसाधन-विहीन अरविंद केजरीवाल दिल्ली की शक्तिमान मुख्यमंत्री को परास्त कर सत्ता में आते? और अगर घर-घर तक सोशल मीडिया की पहुंच न होती तो क्या किसी चुनाव में प्रधानमंत्री पद के किसी प्रत्याशी के पक्ष में इस किस्म का माहौल बनता?

सोशल मीडिया, जिसकी शक्ति को 2012 के राष्ट्रपति चुनावों में अमेरिका में महसूस किया था, अब भारतीय परिस्थितियों में भी अपना रंग दिखाने लगा है. ट्विटर पर किसी राजनेता की एक टिप्पणी न सिर्फ प्रतिक्रिया, समर्थन, आलोचना और निंदा का सिलसिला शुरू कर सकती है, बल्कि एक ऐसे विमर्श को जन्म दे सकती है, जो वचरुअल माध्यमों से होते हुए मुख्यधारा के मीडिया और फिर आपके-हमारे घरों तक पहुंच जाता है. पब्लिक स्पेस में सक्रिय लोगों की छवि वचरुअल माध्यमों पर रोज बनती और बिगड़ती है, महज एक टिप्पणी की बदौलत. याद कीजिए, शशि थरूर का बयान, जिसमें उन्होंने एअर इंडिया की कैटल क्लास के प्रति अपनी जुगप्सा का इजहार किया था, या फिर रॉबर्ट वाड्रा की टिप्पणी (मैंगो मैन इन बनाना रिप ब्लिक) जिसे उन्हें न सिर्फ आनन-फानन में ट्विटर से हटाना पड़ा, बल्कि इस माध्यम को संभाल न पाने पर उन्होंने अपना फेसबुक खाता ही डिलीट कर दिया. नरेंद्र मोदी का कोई तीर सोशल मीडिया पर खाली नहीं जाता, मगर सुनंदा पुष्कर के बारे में की गई 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड संबंधी टिप्पणी ने उनकी छवि को नुकसान पहुंचा दिया.

फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब, ब्लॉग और व्हाट्सऐप तथा सामान्य एसएमएस संदेश तक सुर्खियां पैदा करने की ताकत रखते हैं. वे लोगों की राय को आकार देने की स्थिति में आ रहे हैं, जैसा कि हमने इन चुनावों में घटित होते हुए देखा. सोशल मीडिया हमारी समन्वित अभिव्यक्ति की शक्ति का प्रकटीकरण बनकर सामने आ रहा है. वह विचारों और विमर्श ऐसा प्रस्फुटन है, जैसा भारत ने पहले नहीं देखा. यह ऐसा मीडिया भी है, जिसे तकनीकी लिहाज से चतुर लोगों द्वारा अपने पक्ष में मोड़ना असंभव नहीं है. सोशल मीडिया विचारों के स्वतंत्र व निर्बाध विचार का वाहक बन रहा है.

बालेंदु दाधीच

डिजिटल तकनीक

के जानकार

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