!!उना से अंजनी कुमार सिंह!!
उना के टॉवर चौक से मोटा समडियाला गांव की ओर सड़क जाती है, जहां पर एक साल पहले दलित समुदाय के परिवार पर कथित गोरक्षकों ने हमला किया था. इस घटना की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हुई. वहां कई समूहों में खड़े लोगों से उस कांड के विषय में जानना चाहा, तो सरमन परमार कहते हैं कि इस कांड की चर्चा उना में कम, बाहर ज्यादा है. कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा किये गये कारनामों को जिस अंदाज में राजनेताओं और मीडिया ने पेश किया, उससे उना में वर्षों के आपसी भाईचारे और सौहार्द को धक्का पहुंचा है. उस कांड के बाद यहां का मुख्य मुद्दा ही गौण हो गया है, जबकि यहां बेरोजगारी है, कल-कारखाने नहीं हैं, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति ठीक नहीं है. रउफ कहते हैं कि यह सही है, लेकिन यह घटना जिस तरह से प्रशासन के संरक्षण में हुआ, उससे कैसे इनकार किया जा सकता है.
पास खड़े ताड़िया साकत कहते हैं कि प्रशासन ने तत्परता दिखाते हुए आरोपियों को पकड़ा और उसे जेल के भीतर डाल दिया. वे लोग अब कोर्ट में केस लड़ रहे हैं. उना बस स्टैंड पर खड़े एक बुजुर्ग कहते हैं कि बेमतलब की बातों को लेकर उना बदनाम हुआ है. जिन लोगों ने गुनाह किया है, उन्हें सजा मिलनी चाहिए. धर्म के ऐसे ठेकेदारों से समाज और सरकार दोनों को बचने की जरूरत है.
बता दें कि गुजरात में दलित समुदाय की आबादी सात फीसदी है. दलितों की 31 उपजातियां हैं. इनमें एकता का अभाव दिखता है. गुजरात में किसी विधानसभा सीट पर दलित निर्णायक भूमिका में नहीं है. राज्य में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कुल 13 सीटों में से भाजपा 10 सीटें जीती थी.
परिवार का दुख दूसरे दलितों ने उठाया
उना में दलित समुदाय वर्षों से भाजपा के साथ रहे हैं, लेकिन इस घटना ने सबको सोचने पर मजबूर किया है. अब चुनाव के वक्त उस पुरानी घटना की याद ताजा की जा रही है. उस कांड को लेकर ग्रामीण दलितों में गुस्सा है. वहीं, राजकोट में मास्टर ऑफ सोशल वर्क की पढ़ाई कर रहें दलित युवा दवेरा कहते हैं कि इस कांड से एक दलित परिवार को जितना दुख पहुंचा है, उससे ज्यादा लाभ दूसरे दलितों ने उठाया है. उनका इशारा दलित विचार मंच के संस्थापक जिग्नेश मेवाणी की ओर था.
समाज में आयी है राजनीतिक चेतना
उना की घटना के बाद दलितों में राजनीतिक चेतना जागृत हुई है. इस घटना की चर्चा पूरे गुजरात में है. दलितों के मन में इस घटना को लेकर आक्रोश है, लेकिन वह इसके लिए सिर्फ भाजपा को दोषी नहीं ठहरा रही है, बल्कि पूरी राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर रही हैं, जिसके कारण आज भी उनलोगों की स्थिति दयनीय है. भुज में देवी पूजक, कंबडिया, गरबा, मांडवा आदि दलित समाज के लोग कहते हैं कि आजादी के बाद से आजतक दलित ही क्यों पिछड़े हुए हैं.