आज हम एक ऐसे बिसरा दिए गए संगीतकार की यादों को लेकर आपसे मुखातिब हैं जिन्होंने पिछली सदी के पाँचवें और छठवें दशक में अपनी कुछ बेहद सुरीली धुनों से फ़िल्म संगीत प्रेमियों के दिलों में एक स्थाई जगह बनाई हुई थी.
यह ज़िक्र संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी के बारे में है जिन्होंने मशहूर महिला संगीतकार सरस्वती देवी के सहायक के रूप में भी एक समय काम किया था. यह एस. एन. त्रिपाठी ही थे जिन्होंने अशोक कुमार और देविका रानी को ‘मैं बन की चिड़िया’ जैसे अमर गीत को गाने का अभ्यास करवाया था.
हिन्दी फ़िल्म संगीत के क्षेत्र में एक संगीत निर्देशक के तौर पर एस. एन. त्रिपाठी जी की मान्यता धार्मिक और पौराणिक फ़िल्मों के संगीतकार के रूप में ही होती है.
उनके खाते में दर्ज़ दर्जनों फ़िल्में ऐसी हैं जिनके नाम सुनकर एक बात का अन्दाज़ा लगता है कि त्रिपाठी जी किस तरह ‘बी’ और ‘सी’ ग्रेड की ढेरों धार्मिक फ़िल्मों के लिए अपने हुनर को धुनों के माध्यम से व्यक्त कर रहे थे.
ऐतिहासिक फ़िल्में
‘हनुमान पाताल विजय’, ‘दुर्गा पूजा’, ‘राम हनुमान युद्ध’, ‘सती नाग कन्या’, ‘लक्ष्मी-नारायण’, ‘बजरंगबली’, ‘रामलीला’, ‘श्री गणेश महिमा’ और ‘उत्तरा अभिमन्यु’ ऐसे कुछ उदाहरण हैं जिन फ़िल्मों में त्रिपाठी जी के गीत गूँजे.
धार्मिक फ़िल्मों की ज़मीन से अलग, स्तरीय ढंग की कुछ बेहद कर्णप्रिय धुनों को एस. एन. त्रिपाठी ने ऐतिहासिक फ़िल्मों के माध्यम से भी रचा था. यह कहा जा सकता है कि यही वे फ़िल्में हैं जिनके कारण उनकी एक संगीतकार की हैसियत से एक प्रमुख उपस्थिति हिन्दी फ़िल्म संगीत की दुनिया में आज तक कायम है.
‘लाल किला’, ‘कवि कालिदास’, रानी रूपमती’, ‘नादिरशाह’, ‘जय चितौड़’, ‘दिल्ली दरबार’ और ‘संगीत सम्राट तानसेन’ जैसी फ़िल्मों के गीतों के कारण आज भी त्रिपाठी जी को बहुत आदर से याद किया जाता है.
त्रिपाठी जी की संगीत के प्रति धैर्य और साधना की युक्तियों को उतने ही सरस ढंग से उनकी धुनों में टटोलना चाहिए जिसे उनके संगीतकार को आज तक संगीत प्रेमी भूल नहीं पाए हैं.
‘शाम भई घनश्याम न आए’, ‘सखी कैसे धरूँ मैं धीर’, ‘रात सुहानी झूमे जवानी’, ‘नैनों से नैनों की बात हुई’ और ‘जरा सामने तो आओ छलिये’ ऐसे ही श्रुति-मधुर गीत हैं.
इन गीतों से अलग एस. एन. त्रिपाठी की एक बड़ी खासियत उनके द्वारा कम्पोज़ की गई शास्त्रीय बन्दिशों जैसी धुनों को लेकर भी रही है जिसमें उन्हें महारत हासिल है.
ऐसे गीतों को सुनकर यह बात सहज ही समझ में आती है कि पिछले दौर में जिसे फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर भी कहा जाता है, वह बहुत कुछ ऐसे ही गीतों के कारण भी सम्भव हुआ होगा.
एक-दो उदाहरणों से इस बात को देख सकते हैं- ‘बाट चलत नई चुनरी रंग डारी’ (रानी रूपमती) और ‘साँझ हो गई प्रभु तुम्हीं प्रकाश दो’ (जय चित्तौड़) ऐसे ही उज्ज्वल उदहारण हैं.
दर्द भरे गीत
त्रिपाठी जी ने कुछ बेहद सुन्दर गीत लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज़ों में भी संभव किए थे, जो विरह या दर्द-भरे गीतों के अप्रतिम मिसाल माने जाते हैं.
इन गीतों में स्वरों का लगाव, शास्त्रीय ढंग से बोलों को बरतने की कोशिश, ऑर्केस्ट्रेशन का बहुत हल्का-सा मन्थर प्रवाह अद्भुत ढंग से व्यक्त हुआ है, जो इन गीतों को किसी भी बड़े से बड़े संगीतकार के दर्द-भरे गीतों की श्रेणी में बराबर से स्थान देने लायक बना गया है.
इन्हें सुनकर आप सहज की एस. एन. त्रिपाठी की प्रतिभा को एस. डी. बर्मन, जयदेव, मदन मोहन और नौशाद के गीतों के बरक्स रखकर देख सकते हैं. ऐसे में मुकेश का गाया ‘झूमती चली हवा याद आ गया कोई’ (संगीत सम्राट तानसेन) मिसाल के तौर पर याद किया जाने वाला आदर्श गीत होगा.
एस. एन. त्रिपाठी का संगीत धार्मिक, पौराणिक और ऐतिहासिक फ़िल्मों के माध्यम से एक बिल्कुल अलग धरातल पर खड़ा नज़र आता है जिसमें फ़िल्मों के कथानक और परिवेश के अनुकूल ही पार्श्व ध्वनियों के साथ धुनों में लालित्य पैदा किया गया है.
शास्त्रीय और लोक रंग
कई मर्तबा ऑर्केस्ट्रेशन संयोजन से, तो कई बार इसे उपयुक्त रागों के सुरों को लेकर रचा गया है, जिनमें दरबारी, मालकौंस, दरबारी कान्हड़ा, शिवरंजनी, हेमन्त और खमाज जैसे रागों की प्रधानता रही है.
एस. एन. त्रिपाठी ने राजस्थानी शैली का एक बेहद सुन्दर युगल-गीत ‘थाने काजलियो बना लूँ’ फ़िल्म ‘वीर दुर्गादास’ के लिए कम्पोज़ किया था, जो आज भी उतना ही लोकप्रिय है.
इसी तरह उन्होंने कुछ भोजपुरी फिल्मों में भी संगीत दिया, जिसमें ‘बिदेसिया’ की चर्चा बहुत सम्मान से आज भी होती है.
इतनी विविधता से भरा हुआ संगीत का कोमल और मर्मस्पर्शी संसार, एस. एन. त्रिपाठी जी की देन रहा है, जिन्होंने शास्त्रीय और लोक रंग के सारे सुन्दर सुर चुनकर हिन्दी और भोजपुरी फ़िल्मों को उपलब्ध कराए.
आज भी उनकी संगीतकार के रूप में उपस्थिति उतनी ही सदाबहार और नवोन्मेषी लगती है, जितनी कि पिछली शताब्दी के पाँचवें और छठे दशक में शिखर पर चमक रही थी.
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