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शिक्षा व्यवस्था में बड़े सुधार जरूरी

साल 2024 में लगभग 12.32 लाख छात्रों ने जेइइ मेंस के लिए पंजीकरण कराया है, जबकि 23 आइआइटी संस्थानों में कुल सीटें 16,232 ही हैं. सफलता का अनुपात मात्र 1.3 प्रतिशत है, जो दुनियाभर में सबसे कठिन परीक्षाओं में है. कौन कह सकता है कि जो प्रवेश नहीं ले पाये, वे अच्छे छात्र नहीं हैं ?

पिछले दिनों राजस्थान के कोटा में आत्महत्या करने वाली एक छात्रा के पत्र ने देश को झकझोर दिया. उस पत्र में छात्रा ने अपने माता-पिता से खेद प्रकट किया है क्योंकि वह उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकी. वह दिल टूटने से नहीं, बल्कि मन के टूटने से मरी. अमानवीय प्रतिस्पर्धा और अपेक्षाओं का बोझ वह किशोरी इस कोमल आयु में उठा न सकी. माता-पिता को दोष देने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे अपनी संतान के लिए बेहतर भविष्य चाहते थे. शायद उन्होंने इसके लिए अपनी संपत्ति भी गिरवी रखी हो, पर इससे बच्ची पर बोझ ही बढ़ा. कोटा के कोचिंग सेंटरों की छावनीनुमा व्यवस्था को भी दोष देने का तुक नहीं है, जिसने इस वर्ष ही 25 छात्रों की जान ली है. आत्महत्या और आत्महत्या के प्रयासों में वृद्धि को देखते हुए कोटा में पहले से ही इसे रोकने के प्रयास हो रहे हैं. छात्रावासों में पंखों में स्प्रिंग लगाये गये हैं ताकि फंदे से मौत न हो. ऊंची इमारतों में खिड़कियों से बाहर स्टील के जाल लगाये गये हैं. छात्रों को परामर्श देने के लिए विशेष पुलिस इकाइयां बनी हैं. बीते तीन वर्ष में कोटा में नामांकन दुगुना हो गया है. वहां दो लाख से अधिक छात्र विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए हर दिन 18 घंटे पढ़ाई करते हैं. जेईई व नीट जैसी परीक्षाओं में लॉटरी निकलने के प्रलोभन की यह शक्ति है. नहीं भूलना चाहिए कि यह ऐसी लॉटरी है, जहां संभावनाएं बुरी तरह से प्रतियोगियों के विरुद्ध हैं.

केंद्र सरकार ने उद्योग बन चुके कोचिंग सेंटरों के नियमन के लिए दिशानिर्देश प्रस्तावित किया है. देश में लगभग तीस हजार कोचिंग केंद्र हैं और उनकी अपनी संस्था भी है. कोटा जैसी जगहों में पेइंग गेस्ट आवास, फूड डिलीवरी सेवा, दिखावटी स्कूलों एवं कॉलेजों, परिवहन और अन्य सेवाओं की भी एक अच्छी-खासी अर्थव्यवस्था है, जो बढ़ती जा रही है. माना जाता है कि सभी कोचिंग सेंटरों का सालाना कारोबार सभी आईआईटी और एम्स के कुल सालाना बजट से अधिक है. ऐसे में दिशानिर्देशों का इस उद्योग पर नकारात्मक असर पड़ेगा. इसमें 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों के नामांकन पर रोक है. उचित शुल्क लेने का भी निर्देश है और कोचिंग सेंटरों को छात्रों के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य का जिम्मा भी लेना होगा. कोचिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया के अधिकतर सदस्य चिंतित हैं क्योंकि वे पांचवीं या छठी से ही छात्रों को पंजीकृत करने लगते हैं. कई अभिभावक 11वीं या 12वीं कक्षा से बहुत पहले से ही अपने बच्चों के करियर की योजना बनाने लगते हैं. इसलिए ऐसी श्रेणी के छात्र कोचिंग सेंटरों के लिए अब उपलब्ध नहीं होंगे. देशभर में सेंटरों के फैलाव को देखते हुए नियमों को लागू कराने में भी मुश्किल होगी. निश्चित रूप से नियमन की आवश्यकता है, पर प्रश्न है कि ऐसा कोचिंग उद्योग अपने स्तर पर ठीक से कर सकेगा या सरकार द्वारा नियुक्त नियामक. इस उद्योग के कुछ बड़े खिलाड़ियों ने अच्छा-खासा निवेश जुटाया है. यह उनके हित में है कि वे सभी सेंटरों के व्यवहार को ठीक करें, इसलिए स्व-नियमन के लिए एक अवसर है.

लेकिन एक अव्यवस्थित उद्योग के नियमन या छात्रों की त्रासद आत्महत्या की इस चर्चा में एक महत्वपूर्ण बिंदु पर विचार करना छूट सकता है. शिक्षा की स्थिति पर शैक्षणिक स्तर को सुधारने के लिए बनी अहम संस्था प्रथम की वार्षिक असर रिपोर्ट वास्तविक समस्या की गंभीरता को समझने के लिए एक उत्कृष्ट स्रोत है. रिपोर्ट बताती है कि नौवीं कक्षा की कोचिंग के लिए भी अभिभावक एक लाख रुपये से अधिक खर्च करते हैं. इसका अर्थ है कि सामान्य स्कूलों में शैक्षणिक गुणवत्ता का अभाव है. इससे यह भी पता चलता है कि अच्छे मेडिकल और इंजीनियरिंग संस्थानों में उपलब्ध सीटों और आवेदकों की संख्या में भारी अंतर है. वर्ष 2024 में लगभग 12.32 लाख छात्रों ने जेइइ मेंस के लिए पंजीकरण कराया है, जबकि 23 आइआइटी संस्थानों में कुल सीटें 16,232 ही हैं. सफलता का अनुपात मात्र 1.3 प्रतिशत है, जो दुनियाभर में सबसे कठिन परीक्षाओं में है. कौन कह सकता है कि जो प्रवेश नहीं ले पाये, वे अच्छे छात्र नहीं हैं? यही कहानी मेडिकल की अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा नीट में भी दोहरायी जाती है. अखिल भारतीय सिविल सेवाओं में भी आवेदकों और सीटों का अंतर बहुत अधिक है. बहुत से छात्र बार बार आवेदन करते हैं, खासकर सिविल सेवाओं में.

यह गंभीर संरचनात्मक समस्या है और हमारी शिक्षा व्यवस्था की बड़ी कमजोरी को इंगित करती है. वर्ष 1991 के आर्थिक सुधार परिवर्तनकारी थे, जिससे देश अभाव की अवस्था से पसंद और बहुतायत की ओर गया. लाइसेंस-परमिट राज के खात्मे और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में किसी के प्रवेश की स्थिति का मतलब था कि गुणवत्ता और कम दाम के लिए प्रतिस्पर्धा होगी. कई सारे उत्पादों, वाहन, उपभोक्ता वस्तुएं, घरेलू सामान, खाद्य पदार्थ आदि के मामले में अच्छी गुणवत्ता की अपेक्षा करने और उसे पाने की हमें आदत लग गयी. ऐसा टेलीकॉम, खुदरा, बैंकिंग, वित्त एवं स्टॉक मार्केट जैसी सेवाओं के साथ भी हुआ. लेकिन शैक्षणिक सेवाओं के क्षेत्र में नियमों, लाइसेंसों और पहले की व्यवस्थाओं की जंजीर बरकरार रही. संवैधानिक रूप से शिक्षा राज्य सूची में है, लेकिन उच्च शिक्षा केंद्र सरकार की नीतियों से भी प्रभावित होती है. इस क्षेत्र में भी सुधार के कई प्रयास हुए हैं, लेकिन ‘कोचिंग कल्चर’ (जैसा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में कहा गया है) और कोचिंग उद्योग की अर्थव्यवस्था का बढ़ना एक ओर मांग और आकांक्षा के बीच की खाई तथा दूसरी ओर इनमें और अच्छे शैक्षणिक संस्थानों की आपूर्ति के बीच की खाई को इंगित करता है.

भारत के धनी अभिभावक अपने बच्चों को अब विदेश केवल पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई के लिए ही नहीं, बल्कि 12वीं के बाद स्नातक की पढ़ाई के लिए भी भेजने लगे हैं. भारत में मेडिकल और बिजनेस की पढ़ाई के बड़े खर्च को देखते हुए भी लोग अमेरिका, यूरोप या ऑस्ट्रेलिया में सस्ता विकल्प खोज रहे हैं. भारत का वार्षिक शिक्षा ‘आयात’ यानी विदेशी शिक्षा पर किया गया खर्च 30 अरब डॉलर से अधिक है, जो हमारे रक्षा बजट का आधा है. बोतलबंद पानी के उद्योग की बढ़त की तरह कोचिंग उद्योग का बढ़ना गुणवत्तापूर्ण आपूर्ति के अभाव को दिखाता है, जिससे भारत का शिक्षा क्षेत्र ग्रस्त है. सरकारी और निजी स्रोतों से इस आपूर्ति में बड़ी वृद्धि जरूरी है. अगर हम चौतरफा बेहतरी चाहते हैं, तो भारत के मानव पूंजी को बढ़ाना सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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