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आदिवासी समुदायों में सामाजिक सुधार की सख्त जरूरत, झारखंड स्थापना दिवस पर पढ़ें यह खास लेख

आदिवासी समाज तभी बचेगा, जब उसका हासा, भाषा, जाति, धर्म, रोजगार, इज्जत, आबादी और संविधान-कानून प्रदत्त अधिकार बचेंगे. इसके लिए आदिवासी समाज को एक वृहद एकता और निर्णायक जन आंदोलन खड़ा करना पड़ेगा. हर आदिवासी गांव-समाज में नशापन, अंधविश्वास, डायन प्रथा आदि को बंद कर समाज सुधार करना होगा.

भारत की संसद, सभी विधानमंडलों और त्रिस्तरीय ग्राम पंचायत में अवस्थित हजारों आदिवासी जनप्रतिनिधियों, देश के कोने -कोने में अवस्थित हजारों आदिवासी जनसंगठनों और हजारों आदिवासी डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, वकील, आइएएस-आइपीएस अफसरों आदि के अलावा हर आदिवासी गांव-समाज में आदिवासी स्वशासन प्रमुखों (माझी परगना, मानकी मुंडा आदि) के होने के बावजूद लगभग प्रत्येक आदिवासी गांव-समाज में नशापान, अंधविश्वास, डायन प्रथा, ईर्ष्या-द्वेष, आदिवासी महिला विरोधी मानसिकता, वोट की खरीद-बिक्री, राजनीतिक कुपोषण, धर्मांतरण, विस्थापन-पलायन की चिंता और दंश, राजतांत्रिक स्वशासन व्यवस्था आदि हावी है. अंतत: सभी आदिवासी गांव-समाज में मंजिल की सूझबूझ और एकता की घोर कमी है. सभी भटकने को मजबूर हैं.

भारत के आदिवासियों को अब अमेरिका के काले नीग्रो लोगों की तरह डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग जूनियर द्वारा दिखाये गये एक बड़े सपने को देखना और साकार करना होगा. राजा राममोहन राय की तरह सती प्रथा जैसी गलत प्रथा और परंपराओं को तोड़कर ब्रह्म समाज की तरह एक नया आदिवासी समाज बनाना होगा. महात्मा ज्योतिबा फुले की तरह अपनी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक गुलामगिरी की जंजीरों को तोड़ना होगा. तर्कपूर्ण सत्यशोधक समाज खड़ा करना होगा. डॉक्टर भीमराव आंबेडकर और मान्यवर कांशीराम की तरह सकारात्मक राजनीति का पाठ पढ़ाकर समाज को राजनीतिक कुपोषण से मुक्त करना होगा. सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय दिलाना होगा. बिरसा मुंडा और सिदो-कान्हू मुर्मू की तरह समाज के लिए अंग्रेजों के खिलाफ समर्पित भाव से संघर्ष करना होगा.

डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने लगभग 300 वर्षों तक अमेरिका में गुलाम बने नीग्रो लोगों को आवाज दी- “आओ, एकजुट हो जाओ, हमारे पास तुम्हारे लिए गुलामी से आजादी का एक सपना है.” काले लोग 28 अगस्त 1963 को अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में लाखों की संख्या में जमा हुए. डॉक्टर किंग ने कहा- “अब हम आजाद होंगे, क्योंकि संविधान में हमारे लिए भी हिस्सा है. काले व गोरे दोनों का खून लाल है अर्थात हम बराबर के हकदार हैं. ईश्वर ने सबको एक समान बनाया है.” अंतत: नीग्रो लोगों को आजादी मिली. डॉक्टर किंग ने कहा था- “ इंसान जब तक व्यक्तिगत चिंताओं के दायरे से ऊपर उठकर पूरी मानवता की वृहद चिंताओं के बारे में नहीं सोचता है, तब तक उसने जीवन जीना ही शुरू नहीं किया है. तब भी अपने लिए जीते हो… तो तुम्हारा, बच्चों का भविष्य तुम्हारे समाज का दुश्मन तय करेगा. हो सकता है तुम बच जाओ, मगर पीढ़ियों की गुलामी के जिम्मेदार तुम खुद हो.” आदिवासी समाज तभी बचेगा, जब उसका हासा, भाषा, जाति, धर्म, रोजगार, इज्जत, आबादी और संविधान-कानून प्रदत्त अधिकार बचेंगे. इसके लिए आदिवासी समाज को एक वृहद एकता और निर्णायक जन आंदोलन खड़ा करना पड़ेगा.

हर आदिवासी गांव-समाज में नशापन, अंधविश्वास, डायन प्रथा, वोट की खरीद-बिक्री आदि को बंद कर समाज सुधार करना होगा. अधिकांश अनपढ़, पियक्कड़, नासमझ लोगों के द्वारा संचालित आदिवासी स्वशासन व्यवस्था को भी अविलंब जनतांत्रिक और संविधानसम्मत बनाना जरूरी है, ताकि पढ़े-लिखे आदिवासी स्त्री पुरुषों की भागीदारी का रास्ता प्रशस्त हो सके. सबको सरना धर्म कोड और भारत राष्ट्र के भीतर (झारखंड को केंद्रित कर) आदिवासी राष्ट्र निर्माण जैसे बड़े सपनों के साथ जोड़ना होग, एकजुट करना होगा.

प्रत्येक आदिवासी गांव-समाज में समाज-सुधार और एकजुटता आ जाए तो देश में आदिवासी समाज अपने सपनों को जरूर पूरा कर सकता है. परंतु, आदिवासी समाज पर आज गलत और स्वार्थ की राजनीति हावी है, जबकि गैर-आदिवासी समाज अपनी समृद्धि के लिए राजनीति पर हावी है. आरक्षित सीटों से जीतने वाले आदिवासी एमएलए / एमपी अपने समाज के बदले केवल पार्टियों की गुलामी करते हैं. अधिकतर आदिवासी सामाजिक जनसंगठन भी उन्हीं आदिवासी नेताओं की परिक्रमा करते हैं. प्रत्येक आदिवासी गांव-समाज में आदिवासी स्वशासन व्यवस्था के नाम पर वंशानुगत काबिज अधिकतर आदिवासी प्रमुख समाज को एकजुट कर आगे बढ़ाने के बदले नशापान, अंधविश्वास, डायन प्रथा, डंडोम (जुर्माना लगाना ), बारोन (सामाजिक बहिष्कार), डान पनते (डायन बनाना), रूमूग (झुपना), बुलुग (मताल होना), वोट की खरीद-बिक्री जैसी बुराइयों की दलदल में धकेलते रहते हैं. हर आदिवासी गांव-समाज को एक बड़ा सपना, समाज सुधार और एकता का संकल्प देना होगा, तभी आदिवासी समाज को मंजिल मिलेगी। अन्यथा वह अपने पेट, परिवार और स्वार्थ की दुनिया में भटकता रह जायेगा. फिलवक्त आदिवासी समाज को अपनी मंजिल की प्राप्ति के लिए राजनीति से ज्यादा समाज-नीति की फिक्र करना श्रेयस्कर हो सकता है. पार्टियों और उसके वोट बैंक को बचाने की अपेक्षा मरणासन्न आदिवासी समाज को बचाना अधिक जरूरी है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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