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लोकसभा चुनाव में नक्सलवाद का मुद्दा

केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार सात राज्यों के पैंतीस जिले ऐसे हैं, जहां नक्सलियों का असर है. इन जिलों की करीब पचास लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जिन्हें नक्सल प्रभावित माना जाता है.

चुनावी माहौल में स्थानीय वोटरों के दिल को छूने और उनकी जिंदगी को बदलने वाले मुद्दों को उछालने में राजनीतिक दल कोई कसर नहीं छोड़ते हैं. नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सिर्फ नक्सलियों को चुनौती ही नहीं दी, बल्कि इसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश भी की. अमित शाह ने कहा है कि नक्सली या तो समर्पण कर दें या फिर गोली खाने के लिए तैयार रहें. उनका यह बयान सिर्फ नक्सलियों काे चुनौती नहीं है, बल्कि नक्सल प्रभावित इलाके के मतदाताओं को भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में गोलबंद करने की कोशिश भी है. आम तौर पर सत्ताधारी दल के बयानों की काट विपक्षी दल खोज लेते हैं, लेकिन नक्सलवाद ऐसा मुद्दा है, जिस पर विपक्ष ऐसा आसानी से नहीं कर पाता. केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार सात राज्यों के पैंतीस जिले ऐसे हैं, जहां नक्सलियों का असर है. इन जिलों की करीब पचास लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जिन्हें नक्सल प्रभावित माना जाता है. इनमें से बिहार की चार सीटों के साथ-साथ मध्य प्रदेश के बालाघाट, छत्तीसगढ़ के बस्तर और महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में पहले दौर में ही, यानी 19 अप्रैल को मतदान हो चुका है. लेकिन अब भी झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में कई ऐसी लोकसभा सीटें हैं, जहां वोटिंग होनी है.

छत्तीसगढ़ के कांकेर में अमित शाह का नक्सलियों से जुड़ा बयान एक तरह से इन इलाकों के वोटरों को लुभाने का प्रयास है. वहां पहले दौर के मतदान के ठीक पहले 16 अप्रैल को 29 नक्सली सुरक्षाबलों के साथ हुए मुठभेड़ में मारे गये थे. पहले दौर के मतदान के दो दिन बाद 18 अप्रैल को भी छत्तीसगढ़ में ही दो नक्सली मारे गये थे. इन वजहों से केंद्र सरकार के पास इस मुद्दे पर कहने को बहुत कुछ है. हालांकि 16 अप्रैल को हुए मुठभेड़ के बाद छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने दबे स्वर में मुठभेड़ पर सवाल उठाये थे, जिसका राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने विरोध किया था. राज्य में इस बयान को सुरक्षाबलों का मनोबल गिराने वाला बताया जाने लगा. मामला जब तूल पकड़ा, तो कांग्रेस को बघेल के बयान पर सफाई देनी पड़ी. शायद यही वजह है कि भाजपा नक्सलवाद के सफाये के अपने संकल्प के मुद्दे को नक्सल प्रभावित इलाकों में चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है. उसे लगता है कि इस मुद्दे पर कांग्रेस या उसके विरोधी दल आक्रामक जवाब नहीं दे पायेंगे, जिसका फायदा उसे हासिल हो सकता है. नक्सली असर वाले झारखंड और ओडिशा में 13 मई से दो जून के बीच चार चरणों में चुनाव होने वाले हैं. इसी तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में 13 मई को ही मतदान होगा. झारखंड में जहां लोकसभा की 14 सीटें हैं, वहीं ओडिशा में 21 सीटें हैं. आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सीटों की संख्या क्रमशः 25 और 17 है. झारखंड, ओडिशा और तेलंगाना में भाजपा अपने दम पर चुनावी मैदान में है, लेकिन आंध्र प्रदेश में वह तेलुगू देशम पार्टी और जनसेना पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही है. 
इस बार भाजपा को ओडिशा और तेलंगाना से ज्यादा उम्मीदें हैं. वहीं इंडिया गठबंधन के दल भाजपा को झारखंड और आंध्र प्रदेश में चुनौती दे रहे हैं. ओडिशा में भाजपा का मुकाबला बीजू जनता दल से है, तो आंध्र प्रदेश में उसके सामने वाइएसआर कांग्रेस और कांग्रेस से अलग-अलग चुनौती मिल रही है. चूंकि नक्सल प्रभावित राज्यों के 77 सीटों पर मतदान बाकी है, इसलिए भाजपा नक्सलवाद को मुद्दा बना रही है. नक्सल प्रभावित राज्यों के चुनावी अभियान में नक्सलवाद के सफाये का उल्लेख वह बार-बार कर रही है. झारखंड में भी जब प्रचार अभियान तेज होगा, तो भाजपा इस मुद्दे को जोर-शोर से उठायेगी, इसकी पूरी संभावना है. वह यह बताने की कोशिश करेगी कि कांग्रेस की अगुआई में चली सरकार के दौर 2004-14 की तुलना में प्रधानमंत्री मोदी के शासन वाले 2014-23 के दशक में वामपंथी उग्रवाद से जुड़ी हिंसा में कमी आयी है. इस दौरान नक्सली हिंसा में होने वाली मौतों की संख्या में 69 फीसदी की कमी आयी है, जो 6,035 से घटकर 1,868 हो गयी है. जहां तक झारखंड की बात है, तो राज्य में मौजूदा सत्तारूढ़ गठबंधन की ओर से अपने प्रचार अभियान में पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी को मुद्दा बनाने पर जोर दिया जा रहा है. रांची में हुई रैली में भी नक्सलवाद पर नियंत्रण को लेकर कोई बात नहीं हुई. यह सच है कि नक्सलवाद से मुकाबले में केंद्र सरकार की नीतियों और कार्रवाई की बड़ी भूमिका होती है, लेकिन राज्य सरकार और राज्य के बलों के बिना स्थानीय मुकाबले संभव नहीं है. लेकिन भाजपा के विरोधी दलों की ओर से इस मसले को तूल देने या अपनी उपलब्धियां गिनाने की कोशिश नहीं हो रही है.

यह सच है कि नक्सली हिंसा पर प्रभावित इलाकों में काफी काबू पाया जा चुका है. साल 2023 में नक्सल प्रभावित राज्यों की सुरक्षा हालत की समीक्षा के बाद एक हाई पावर कमेटी बनायी गयी थी. इसके बाद गृहमंत्री अमित शाह ने सुरक्षा बलों को नक्सलवाद के सफाये का आदेश दिया था. माना जा रहा है कि केंद्रीय नीतियां जमीनी स्तर पर प्रभावी हुई हैं. शायद यही वजह है कि नक्सली हिंसा में कमी आयी है. जाहिर तौर पर केंद्र सरकार इसे अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित करेगी. चुनावी माहौल में अमित शाह का बयान और भूपेश बघेल पर सवाल उठाना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है. ऐसा माना जा रहा है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में मतदान की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आयेगी, दूसरे मुद्दों के साथ इस मुद्दे को भी हवा दी जायेगी. इसके जरिये वोटरों को अपने पाले में लाने की कोशिश होगी. नक्सली हिंसा के दौर में तो इन इलाकों में वोटिंग तक ठीक से नहीं हो पाती थी. वोटिंग के बाद हत्याओं का दौर बढ़ता था. उसमें भी कमी आयी है. इसका फायदा उठाने की कोशिश राजनीतिक दल नहीं करते, तो ही हैरत होती. वैसे नतीजे किसी एक मुद्दे पर वोटरों के रुझान को जाहिर नहीं करते. वोटर का मानस बदलने या किसी खास दल के प्रति लुभाने के पीछे कई मुद्दे होते हैं. नक्सलवाद पर नियंत्रण कम से कम नक्सल प्रभावित राज्यों में कई मुद्दों में से एक मुद्दा हो सकता है. भाजपा जिस तरह इसे मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है, उन राज्यों के चुनाव पर इसका असर जरूर पड़ेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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