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बंगाल में वायु प्रदूषण से लोगों के जीवनकाल में कम हो गये 3.8 वर्ष

कोलकाता : शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका की शोध संस्था ‘एपिक’ (एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट एट द यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो) द्वारा तैयार ‘वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक’ का नया विश्लेषण दर्शाता है कि पश्चिम बंगाल में वायु प्रदूषण की गंभीर स्थिति राज्य के नागरिकों की ‘जीवन प्रत्याशा’ औसतन 3.8 वर्ष कम करती है और जीवन प्रत्याशा में उम्र बढ़ […]

कोलकाता : शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका की शोध संस्था ‘एपिक’ (एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट एट द यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो) द्वारा तैयार ‘वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक’ का नया विश्लेषण दर्शाता है कि पश्चिम बंगाल में वायु प्रदूषण की गंभीर स्थिति राज्य के नागरिकों की ‘जीवन प्रत्याशा’ औसतन 3.8 वर्ष कम करती है और जीवन प्रत्याशा में उम्र बढ़ सकती है अगर यहां के वायुमंडल में प्रदूषित सूक्ष्म तत्वों एवं धूलकणों की सघनता 10 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर (विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बताया गया सुरक्षित मानक) के सापेक्ष हो.

एक्यूएलआइ के आंकड़ों के अनुसार कोलकाता के लोग 3.4 वर्ष ज्यादा जी सकते थे. अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों को पूरा कर लिया जाता. वर्ष 1998 में इसी वायु गुणवत्ता मानक को पूरा करने से जीवन प्रत्याशा में 1.1 साल की बढ़ोतरी होती, लेकिन केवल कोलकाता राज्य में प्रदूषित जिलों की सूची में शीर्ष पर नहीं है. राज्य के अन्य जिले और शहर के लोगों का जीवनकाल घट रहा है और वे बीमार जीवन जी रहे हैं.

उदाहरण के लिए मालदा के लोगों के जीवनकाल में 4.8 साल की बढ़ोतरी होती, अगर वहां विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों का अनुपालन किया जाता. इसी तरह पुरुलिया, मुर्शिदाबाद, उत्तर दिनाजपुर, बीरभूम और दक्षिण दिनाजपुर भी इस सूची में पीछे नहीं हैं, जहां के लोगों की जीवन प्रत्याशा में क्रमशः 4.5 वर्ष, 4.3 वर्ष, 4.3 वर्ष, 4.3 वर्ष, और 4.3 वर्ष की वृद्धि होती, अगर लोग स्वच्छ और सुरक्षित हवा में सांस लेते.

एक्यूएलआइ के अनुसार भारत के उत्तरी क्षेत्र यानी गंगा के मैदानी इलाके में रह रहे लोगों की ‘जीवन प्रत्याशा’ करीब 7 वर्ष कम होने की आशंका है, क्योंकि इन इलाकों के वायुमंडल में ‘प्रदूषित सूक्ष्म तत्वों और धूलकणों से होने वाला वायु प्रदूषण’ यानी पार्टिकुलेट पॉल्यूशन विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय दिशा-निर्देशों को हासिल करने में विफल रहा है.

शोध अध्ययनों के अनुसार इसका कारण यह है कि वर्ष 1998 से 2016 में गंगा के मैदानी इलाके में वायु प्रदूषण 72 प्रतिशत बढ़ गया, जहां भारत की 40 प्रतिशत से अधिक आबादी रहती है. वर्ष 1998 में लोगों के जीवन पर वायु प्रदूषण का प्रभाव आज के मुकाबले आधा होता और उस समय लोगों की जीवन प्रत्याशा में 3.7 वर्ष की कमी हुई होती.

इन निष्कर्षों की घोषणा ‘एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स’ के मंच पर इसके हिंदी संस्करण में विमोचन करने के दौरान की गयी, ताकि वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक उस ‘पार्टिकुलेट पॉल्यूशन’ पर अधिकाधिक नागरिकों और नीति-निर्माताओं को जागरूक और सूचना संपन्न बना सके, जो पूरी दुनिया में मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है.

शिकागो विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के मिल्टन फ्राइडमैन प्रतिष्ठित सेवा प्रोफेसर और एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ माइकल ग्रीनस्टोन ने कहा कि एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स के हिंदी संस्करण की शुरुआत के साथ करोड़ों लोग यह जानने-समझने में समर्थ हो पायेंगे कि कैसे पार्टिकुलेट पॉल्यूशन उनके जीवन को प्रभावित कर रहा है और सबसे जरूरी यह बात जान पायेंगे कि कैसे वायु प्रदूषण से संबंधित नीतियां जीवन प्रत्याशा को बढ़ाने में व्यापक बदलाव पैदा कर सकती हैं.

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