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अशोक पागल को रंगकर्मियों ने ऐसे किया याद, कहा- उनके अधूरे सपने को हम पूरा करेंगे

अशोक पागल. झारखंड के रंगमंच से जुड़ा एक अजीम सितारा आज अस्त हो गया. एक से बढ़कर एक बेहतरीन नाटक, बेहतरीन निर्देशन जिसने झारखंड की पहचान को रंगमंच पर और रौशन कर दिया.अपना पूरा जीवन इस विधा को देने वाले अशोक पागल का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया.

अशोक पागल. झारखंड के रंगमंच से जुड़ा एक अजीम सितारा आज अस्त हो गया. एक से बढ़कर एक बेहतरीन नाटक, बेहतरीन निर्देशन जिसने झारखंड की पहचान को रंगमंच पर और रौशन कर दिया.अपना पूरा जीवन इस विधा को देने वाले अशोक पागल का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया.

अशोक पागल साल 1964 के अक्टूबर महीने में पहली बार रंगमंच पर चढ़े और तब से लेकर ताउम्र रंगकर्मी का मिजाज रहा. वे एक मौलिक नाट्य चिंतक, नाटककार और प्रभावी रंग-निर्देशक थे . 1970 में ‘हस्ताक्षर’ की स्थापना कर उन्होंने रांची में आधुनिक शौकिया रंगमंच की नींव डाली थी. रंगकर्मियों के लिए यह बड़ी क्षति है. हमने अशोक पागल जी से करीब का रिश्ता रखने वाले कई लोगों से बातचीत की है

अश्विनी कुमार पंकज.

कवि, कथाकार, उपन्यासकार, पत्रकार, नाटककार, रंगकर्मी और आंदोलनकारी संस्कृतिकर्मी अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं अशोक पागल से इनके बेहद निजी रिश्ते थे और साथ मिलकर अक्सर कलात्मक चीजों पर चर्चा करते रहते थे. प्रभात खबस से विशेष बातचीत करते हुए अश्विनी पंकज ने कहा, हमसे वरिष्ठ थे. मैं रंगमंच में आया, तो मैं उनसे जुड़ा. उनका हिंदी नाटक और रंगमंच के क्षेत्र में बड़ा योगदान है.

उन्होंने रंगमंचीय परंपरा में कई अहम चीजें जोड़ी. इस तरह का सहयोग वही दे पाते हैं जिन्हें इसकी बेहतर समझ होती है. अशोक जी इस स्तर के थे कि झारखंड में उनके स्तर का कोई दूसरा नाटककार या निर्देशक नहीं है. राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने अपनी एक पहचान बनायी. उन्होंने दलित मुद्दे को 80 के दशक में उठाया. ‘हरिजन दहन’ नामक नाटक की खूब चर्चा रही थी. भारत की सामाजिक जातीय व्यस्था को बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया था. उनके कई नाटक हैं, अमीबा, शंकुतला जो नागपुरी में लिखा उनके कई बेहतरीन नाटक हैं.

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उन्हें याद करते हुए, अश्विनी पंकज ने कहा, ना सिर्फ नाटक बल्कि उनके यहां कई किताबें छपती थी. 70 से लेकर अबतक एक ऐसे स्तंभ थे, जिसमें उन्हें छोड़कर झारखंड की सांस्कृतिक स्मिता के अंग थे. झारखंड के किसी भी भाषा साहित्य की तस्वीर उनके बगैर पूरी नहीं हो सकती है. अशोक पागल का एक इंटरव्यू भी मैंने लिया था, जो अभी भी अधूरा है, मेरे पास वीडियो है. मैं जल्द सभी के लिए उसे पूरा करूंगा. हमने यह कोशिश की थी कि इस तरह के लोगों का परिचय युवाओं से भी कराया जाये.

राकेश रमण

रंगकर्मी राकेश रमण अशोक पागल को याद करते हुए कहते हैं हमारे पारिवारिक रिश्ते थे, मैं उनसे साथ साल 1979 से पहले से जुड़ा था. हस्ताक्षर के रंगमंच का दूसरा या तीसरा साल रहा होगा. हमारे पारिवारिक संबंध रहें. उनके साथ मिलकर कई बेहतरीन काम करने का अवसर मिला. जो उनकी सोच और समझ रही वो दूसरों से अलग थी. एक व्यक्ति, एक गुरू एक नाटककार के साथ- साथ एक प्रयोगधर्मी खो दिया है. आज से 35 साल पहले विचारों को विचार की तरह मंचित करने का जो प्रयोग किया उनके नाटक अमीबा, महत्वकांक्षा पूरे देश में चर्चित हुए. ऐसे नाटककार बेहद कम है. उन्होंने भी इतिहास को लेकर लिखा. ऐसी दूर की सोच रखने वाले कम है. मुझे लगता है भारत में अब कोई नहीं है.

उन्होंने एक नाटक बिंबिसार लिखा था, जिसे वो मंचित देखना चाहते थे. वो एतिहासिक नाटक है यह उनकी अंतिम इच्छा थी. हम इसे हर हाल में पूरा करेंगे. उसके लिए तैयारी भी की जा रही है. अफसोस रहा कि उनके रहते यह पूरा नहीं हुआ. दूसरा एक नाटक था गीत नाटक ओहो नौरी. यह झारखंड के परिपेक्ष में तैयार नाटक है. इसमें महिलाएं चाहिए तभी यह मंचन हो सकेगा. इनकी यह दो इच्छाएं हैं हम इसे पूरा करेंगे. सुशील कुमार अंकन जी ने जिम्मा उठाया है.

एक और रचना कर रहे थे मांदर शाल, इसे लेकर वह 30 से 35 सालों से काम कर रहे थे मुझे नहीं पता कि यह कितना पूरा हुआ. मैंने कई बार इसके लिए कई जगहों पर जानकारी इकट्टा की है. उसकी पांडुलिपी सुनायी भी थी, यह देखना कितना अधूरा रह गया है, अगर परिवार के लोग चाहेंगे तो मैं इसे पूरा करूंगा.

डॉ सुशील कुमार अंकन

रंगकर्मी, फोटोग्राफर, निर्देशक सहित कई अहम पदों पर रहे डॉ सुशील कुमार अंकन ने संवेदना व्यक्त करते हुए अपने गुरू के साथ अपने रिश्ते पर कहा, पहली बार रंगमंच में नाटक किया था उनके निर्देशन में ही किया था, नाटक का नाम था ‘वह एक जिंदा आदमी है’. उनके साथ मैं निरंतर जुड़ा रहा.

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कई प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया उनसे बहुत कुछ सीखा. हस्तारक्ष रंग संस्था की स्थापना 1971 में उन्होंने की थी. पिछले कुछ महीनो से उनकी तबीयत खराब थी लेकिन उन्होंने ऐतिहासिक नाटक पूरा किया. उनकी इच्छा थी कि मैं बिंबिसार करूं, यह एक बड़ा नाटक है, लगभग ढाई- तीन घंटे का नाटक है. उनसे गहरा लगाव था. नाटकों की दुनिया में झारखंड में उनकी जैसी समझ रखने वाला दूसरा कोई नहीं है. यह एक युग का समापन है. बहुत सारे नाटक इन्होंने लिखे.

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