खनिज संपदा से समृद्ध झारखंड ने अपने पहले ही वित्तीय वर्ष में सरप्लस बजट बनाकर आर्थिक रूप से समृद्ध होने का ढिंढोरा पीटा. हालांकि, बाद में महालेखाकार(एजी) ने इसे राजस्व घाटे का बजट बताया. राज्य गठन के बाद 12वें वित्त आयोग के सामने राज्य ने गरीबी और आर्थिक स्थिति की दुहाई देते हुए झारखंड को विशेष दर्जा देने की मांग की.
लेकिन, विशेष राज्य का दर्जा तो दूर, केंद्र ने किसी भी वित्त आयोग की अनुशंसित पूरी राशि राज्य को नहीं दी. अब तो राज्य सरकार ने अपने आर्थिक संकट के मद्देनजर श्वेत पत्र जारी कर रखा है. इन विषम परिस्थितियों के बावजूद राज्य ने काफी प्रगति की है, लेकिन अब भी राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे है.
राज्य विकास परिषद ने तो राष्ट्रीय औसत तक पहुंचने में और 16 साल का वक्त लगने का अनुमान किया है. बिहार से अलग होने के बाद झारखंड को पहली बार वित्तीय वर्ष 2001-02 में बजट बनाने का मौका मिला.
राजस्व का आकलन करने के बाद राज्य के प्रथम मुख्य सचिव घाटे का बजट पेश करने के पक्षधर थे. क्योंकि, सरकार ने विकास के लिए जो लक्ष्य निर्धारित किये थे, उसके मुकाबले सरकार के पास अपने स्रोतों से राजस्व की कमी थी.
उस वक्त राज्य में 54 प्रतिशत गरीबी थी. इस स्थिति में सुधार के लिए पैसों की जरूरत के मुकाबले आमदनी कम हो रही थी. लेकिन, राजनीतिक स्तर पर इस मुद्दे पर सहमति नहीं बनी और सरप्सल बजट पेश किया गया. वित्तीय वर्ष खत्म होने के बाद महालेखाकार(एजी) ने 2001-02 में सरकार की आमदनी और खर्च का ऑडिट किया और विधानसभा में अपनी रिपोर्ट पेश की. वित्तीय वर्ष 2001-02 के लिए पेश की गयी रिपोर्ट में राज्य के पहले बजट को 305 करोड़ के राजस्व घाटे का बजट करार दिया गया.
लेकिन, पहले बजट के सहारे राज्य के आर्थिक रूप से समृद्ध होने का राजनीतिक स्तर पर ढिंढोरा पीट दिया गया.
राज्य गठन के बाद झारखंड को पहली बार 12वें वित्त आयोग के सामने अपनी वास्तविक आर्थिक स्थिति पेश कर केंद्रीय करों में हिस्सेदारी और अनुदान मांगने का मौका मिला. इसमें राज्य की ओर से कहा गया कि राज्य की 54 प्रतिशत ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा से नीचे है. 31 मार्च 2001 को राज्य पर कर्ज का बोझ 6145.24 करोड़ रुपये था.
यह दूसरे ही वित्तीय वर्ष (2002-03) के अंत में बढ़ कर 8923.31 करोड़ रुपये हो गया है, जो कि राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के मुकाबले 35.5 प्रतिशत है. एकीकृत बिहार के समय विकास योजनाओं के लिए कर्ज के सूद का बोझ 2001-02 में 565 करोड़ रुपये था. वित्तीय वर्ष 2002-03 में यह बढ़ कर 1168 करोड़ रुपये हो गया है. मांग की गयी कि राज्य की आर्थिक स्थिति, गरीबी और भौगोलिक स्थिति को देखते हुए विशेष राज्य का दर्जा दिया जाये.
अगर यह संभव नहीं हो, तो केंद्रीय कर्ज और अनुदान को 70:30 के अनुपात को बदल कर 50:50 कर दिया जाये. लेकिन, राज्य की ओर से की गयी यह मांग पूरी नहीं हुई. केंद्र सरकार ने किसी भी वित्त आयोग द्वारा अनुशंसित पूरी राशि राज्य सरकार को नहीं दी. 15वें वित्त आयोग की अनुशंसाओं की स्थिति का आकलन इसकी अवधि (2020-25) समाप्त होने के बाद ही किया जा सकेगा.
राज्य गठन के बाद से अब तक खर्च के मुकाबले आमदनी की कमी के मद्देनजर राज्य सरकार विभिन्न स्रोतों से कर्ज लेती रही है. इससे राज्य पर कर्ज बढ़ कर 92,864 करोड़ रुपये हो गया है. वर्ष 2020 में राज्य सरकार ने अपनी खस्ताहाल आर्थिक स्थिति पर श्वेत पत्र जारी किया.
इन विषम परिस्थितियों के बावजूद राज्य ने अपने गठन के समय के मुकाबले काफी तरक्की की है. इसके बाद भी राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे है. विकास के पैमाने पर देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले झारखंड की स्थिति को समझने के लिए यह जानना काफी है कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में झारखंड अन्य राज्यों के मुकाबले 25वें पायदान पर खड़ा है.
पैमाना झारखंड राष्ट्रीय औसत
कुल गरीबी 36.51% 21.92%
ग्रामीण गरीबी 40.84% 25.70%
शहरी गरीबी 24.83% 13.70%
सिंचाई क्षमता 36.63% 67.85%
आइएमआर/हजार 29 34
एमएमआर/लाख 130 165
संस्थागत प्रसव 61.9% 78.9%
कुल साक्षरता 66.40% 73%
पुरुष साक्षरता 76.84 80.90
महिला साक्षरता 55.40% 64.65%
(स्रोत- 15वें वित्त आयोग को ज्ञापन)
posted by : sameer oraon