मेले में आनेवाले लोगों ने बताया कि देश के तीन सबसे बड़े आदिवासी समुदायों में से एक संताली आदिवासियों ने 1855 की आजादी की लड़ाई में भी शिरकत की थी. संताली भाषा बोलनेवाले आदिवासियों के पूजा करने का तरीका अलग होता है. संताली मूर्ति पूजा नहीं करते, लेकिन भूत-प्रेत पर काफी विश्वास करते हैं. सूरजकुंड मेला के झारखंड पैवेलियन में असुर और बिरजिया आदिम जनजाति के कला की प्रदर्शनी भी लगायी गयी है. यह जनजाति पुश्तों से लोहे के औजार बनाने में माहिर है.
उनकी पद्धति का इस्तेमाल कर अशोक स्तंभ और कोणार्क मंदिर के पिलर को भी बनाया गया था. झारखंड सरकार ने विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के सहयोग से अब तक इस पद्धति को संरक्षित कर रखा है. मेले में आये लोगों ने औजार बनाने की पारंपरिक कला देखी. शाम में नागपुरी, करसा और अखरा नृत्य का आयोजन किया गया. राज्य के विभिन्न हिस्सों से गये कलाकारों ने दर्शकों की खूब प्रशंसा बटोरी.