रांची: आदिवासी विकास विरोधी नहीं है, उन्हें विकास चाहिए पर जल, जंगल जमीन के साथ. भाषा, संस्कृति, सभ्यता, रहन-सहन के साथ विकास हो. इसके बिना विकास का कोई मतलब नहीं है.
आदिवासी समाज पर भूमंडलीकरण की मार पड़ रही है. उक्त बातें सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बरला ने रविवार को रणोंद्र लिखित उपन्यास ‘गायब होता देश’ पर आयोजित राष्ट्रीय परिसंवाद के उदघाटन सत्र में कही.
परिसंवाद श्री कृष्ण लोक प्रशासन संस्थान सभागार में हुआ. कार्यक्रम का आयोजन प्रगतिशील लेखक संघ व जन संस्कृति मंच के संयुक्त तत्वावधान में किया गया. उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज प्रकृति के साथ चलता है. जल, जंगल, जमीन को केवल आदिवासी से जोड़ कर नहीं देखा जाये, यह आदिवासी समाज के लिए ही नहीं, बल्कि विश्व बचाने के लिए आवश्यक है. डॉ मनमोहन पाठक ने रणोंद्र लिखित उपन्यास के बारे में बताया. उपन्यास में लेखक का आदिवासी समाज के प्रति प्रेम दिखता है. रवींद्र भारती विवि कोलकाता के डॉ हितेंद्र पटेल ने कहा कि इस उपन्यास में लेखक ने स्मृति व इतिहास को साथ रखने का काम किया है.
लेखक-कथाकार प्रो केदार प्रसाद मीणा ने कहा कि साहित्य समाज को नयी दिशा देता है. गायब होता देश उपन्यास में आदिवासियों की भाषा, संस्कृति व उनकी स्थिति को बड़े स्तर पर देखने का मौका मिलता है. इसमें आदिवासियों की समस्याओं के बारे में बताया गया है. मंच संचालन डॉ मिथलेश ने व स्वागत भाषण अनिल अंशुमन ने किया. कार्यक्रम में डॉ अशोक प्रियदर्शी, डॉ गिरधारी राम गंझू, डॉ जंग बहादुर पांडेय समेत काफी संख्या में लोग उपस्थित थे.
मीडिया पर कॉरपोरेट जगत हावी है : रामशरण जोशी
देश के वरिष्ठ पत्रकार, लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता रामशरण जोशी ने कहा कि आज मीडिया पर कॉरपोरेट जगत हावी है. चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों की स्थिति एक जैसी है. किसी न किसी रूप में अखबार व चैनल कॉरपोरेट जगत के अधीन हैं. मीडिया में पहले 26 प्रतिशत एफडीआइ था, जिसे बढ़ा कर 75 प्रतिशत कर दिया गया है. कॉरपोरेट जगत अपने हिसाब से मीडिया के माध्यम से लोगों के विचारों को भी प्रभावित कर रहा है. मीडिया व पूंजीपतियों का जो गंठजोड़ है, वह देश व समाज के लिए काफी खतरनाक है. श्री जोशी ने कहा कि रणोंद्र के उपन्यास में उठाया गया विषय वस्तु जीवंत है. वास्तविकताओं पर आधारित प्रतीत होता है. लोक कथाओं, मिथकों के माध्यम से समस्या को उजागर करने का प्रयास किया गया.
इन्होंने भी रखे विचार
लोकल व ग्लोबल दोनों प्रश्न समाहित है : डॉ रविभूषण
विषय प्रवेश करते हुए साहित्यकार-आलोचक डॉ रविभूषण ने कहा कि रणोंद्र लिखित उपन्यास ‘गायब होता देश’ में ग्लोबल व लोकल दोनों प्रश्न समाहित है. उन्होंने कहा कि जब कभी भी सामाजिक संरचना में उथल-पुथल होती है, तो उपन्यास, कला व संस्कृति भी बिना प्रभावित हुए नहीं रहती है. उपन्यास में मिथिला की संस्कृति की झलक दखने को मिलती है.
उपन्यास में ऐतिहासिक चेतना है : डॉ खगेंद्र ठाकुर
साहित्यकार डॉ खगेंद्र ठाकुर ने कहा कि गायब होता देश ऐतिहासिक उपन्यास तो नहीं है, पर इसमें ऐतिहासिक चेतना है. लेखक ने जनता को संवेदनशील नजर से देखा है, न कि अवसरवादी नजर से. उपन्यास में यथार्थ है, इसकी भाषा में कई जगह काव्यात्मकता है. उपन्यास में देश को देहात के अर्थ में लिया गया है. उपन्यास बिहार के मधुबनी से शुरू होकर झारखंड आकर समाप्त हुई है.