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लोकमंथन : मुझे मंच चाहिए, मुझे तो अपनी बात कहनी है : डॉ कौशल पवार
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी यानी जेएनयू में संस्कृत पढ़ानेवाली असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ कौशल पवार को हरियाणा में उनके गांव के लोग चुहरी (सफाई कर्मियों के लिए प्रयुक्त किया जानेवाल शब्द) बोलते थे. कैथल जिले के राजौंद गांव में एक भूमिहीन दलित परिवार में दो बड़े भाईयों के बाद पैदा हुईं कौशल अपने स्कूली दोस्तों के घर […]
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी यानी जेएनयू में संस्कृत पढ़ानेवाली असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ कौशल पवार को हरियाणा में उनके गांव के लोग चुहरी (सफाई कर्मियों के लिए प्रयुक्त किया जानेवाल शब्द) बोलते थे. कैथल जिले के राजौंद गांव में एक भूमिहीन दलित परिवार में दो बड़े भाईयों के बाद पैदा हुईं कौशल अपने स्कूली दोस्तों के घर गोबर उठाती थीं. फिर उन्हीं दोस्तों के साथ कक्षा में बैठ कर पढ़ना उनके लिए कभी भी आसान नहीं रहा.
आलम यह था कि मंदिर के नल से इन्हें पानी पीना तक मना था. छोटे गांव से निकल कर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी यूएस, इंपीरियल कॉलेज लंदन,मैसाच्यूेट्स यूनिवर्सिटी, फ्रांस, बैंकुवर तथा यूएनअो में व्याख्यान देने वाली 40 वर्षीय डॉ पवार को यह उपलब्धि जातिगत भेदभाव के अंतहीन प्रहार झेलने के बाद मिली है. दिल्ली में रहनेवाली यह प्रोफेसर, जो बाबा साहेब को अपना आदर्श मानती हैं, अब खुद भी देश भर के वाल्मीकि समुदाय के लिए प्रेरणास्रोत हैं. संघ के लोक मंथन कार्यक्रम में भाग लेने रांची आयीं डॉ पवार ने प्रभात खबर संवाददाता संजय से लंबी बातचीत की है.
लोकमंथन व रांची का अनुभव कैसा रहा.
अच्छा रहा. रांची मैं पहली बार आयी हूं. अपनी बात कहने आयी हूं.
सातवीं कक्षा की लड़की ने गृह विज्ञान व संगीत के बदले संस्कृत को अतिरिक्त विषय कैसे चुन लिया?
बस ऐसे ही. तब उतनी समझ भी नहीं थी. पर जैसे-जैसे मेरा विरोध होने लगा, मैं अौर दृढ़ होती गयी कि अब तो यही पढ़ना है. शिक्षक नहीं चाहते थे. पर मैंने पढ़ा व एमए-एमफिल किया.
एक दलित समाज की लड़की किन संघषों से वेद की भाषा पढ़ पायी?
आप खुद समझ सकते हैं. अाश्चर्य तो मुझे तब हुआ, जब जेएनयू में मेरे सहपाठी को जब मेरी जाति का पता चला, तो बेंच-डेस्क धोने की बात होने लगी.
जब से समझ बनी होगी अौर अाज, जातिगत भेदभाव में आप क्या बदलाव देखती हैं?
बदलाव तो बहुत हुए हैं. जातिगत ढांचा दरका भी है. पर एक नयी चीज हो रही है जातियों की उप जातियों के बीच दरार बढ़ी है. इधर झारखंड सहित देश के कई राज्यों में बहुजन समाज का जाति प्रमाण न बनना एक अलग समस्या है.
जेएनयू में पीएचडी के लिए आपने धर्मशास्त्रों में शूद्र का विषय क्यों चुना.?
इस विषय पर मैं काम करना चाहती थी. अपने शोध के दौरान मैंने संपूर्णानंद संस्कृत विवि, वाराणसी से संस्कृत की मूल पांडुलिपियां मंगा कर पढ़ी. इसमें मेरे शोध गुरु हरि राम मिश्रा का बहुत सहयोग रहा.
आपने यूएनअो सहित कई देशों में व्याख्यान दिया है. वेद, शूद्र, शूद्रा (शुद्र नारी) व धर्मशास्त्र विषय पर आपको सुन कर लोगों की क्या प्रतिक्रिया होती है?
लोग इसमें रुचि लेते हैं. वह जानना चाहते हैं कि क्या हमारा समाज हमेशा से शास्त्रों के अनुसार ही चला है. मैं बताती हूं नहीं. मैं हमेशा सकारात्मक पक्ष रखती हूं. शास्त्रों में हमारे आचार्यों ने दलितों व शूद्रों पर होने वाली तमाम नकारात्मक टिप्पणियों का उल्लेख किया है. पर इसकी खिलाफत उन्होंने नहीं की. यह बात खलती है.
आमिर खान के शो सत्यमेव जयते में आपके कार्यक्रम की सीडी गांव-गांव दिखायी जाती है. सत्यमेव जयते के बाद आपकी जिंदगी में क्या बदला?
मैं आमिर खान को देख कर
इस शो में नहीं आयी थी. दरअसल, मुझे अपनी बात कहने का मंच मिला था. पर एक बड़ी बात यह जरूर हुई कि इसके बाद सफाई कर्मियों व दलितों के लिए पॉलिसी बनाने पर चर्चा शुरू हुई. मुझे
लगता है स्वच्छता अभियान जैसे
कार्यक्रम सरकार की जेहन में इसके बाद ही आये.
आपने कभी अपनी जातिगत पहचान नहीं छुपाई. इसके पीछे क्या सोच रही है?
मेरे चाचा (पिता के लिए प्रयुक्त शब्द) जयपाल सिंह ने मुझे यह शिक्षा दी थी कि कोई काम छोटा नहीं होता अौर तुझे तेरे शिक्षक से भी ज्यादा पढ़ना है. उन्होंने यह भी सिखाया कि कभी रोना मत.
इंदिरा गांधी महिला महाविद्यालय में पढ़ने वाली तथा मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय में पढ़ाने वाली महिला, संघ के प्रज्ञा प्रवाह में कैसे चली आती है?
मुझे मंच से मतलब है. उन्हें अधिकार है कि मुझे बुलायें या न बुलायें. पर वहां क्या बोलना है, यह मैं तय करती हूं. आपने भी देखा होगा. वैसे भी हम अपने को एक आइसोलेशन में (काट कर) क्यों रखे. हर पार्टी को हमारी सुध लेनी होगी. दिल्ली में जहां मैं रहती हूं, वहां दलितों की आबादी 27 फीसदी है. वे सब मुझे आगे बढ़ते देखना चाहते हैं. हमारे समाज के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, पर पाने के लिए बहुत कुछ है.
आपके समुदाय के लोग भाजपा व संघ के मंच पर आपके आने को क्या सहजता से लेते हैं?
इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई क्या कह रहा है. कोई क्या साेच रहा है़ हम दूसरे के सामने खुद को छोटा क्यों रखें. छोटी लकीर के सामने लंबी लकीर क्यों न खींचे.
क्या दूसरे दलितों की तरह आप भी मानती हैं कि मायावती ने उन सबका हित किया है?
हां मानती हूं. पर वह सभी दलित समुदाय को अपनी पार्टी में प्रतिनिधित्व नहीं दे रही हैं. वहां सबकी स्वीकार्यता का अभाव है. इसे बदलना होगा़
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