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बदलाव के स्रोत क्या हैं?
– हरिवंश – नवंबर 15, 2007 को झारखंड बने सात वर्ष होंगे. पर पहली बार झारखंड विधानसभा, एक मुद्दे पर नहीं चली. यह सवाल भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा प्रसंग था. साढ़े तीन दिन के मानसून सत्र को अचानक अनिश्चितकाल तक स्थगित करना पड़ा. झारखंड विधानसभा अध्यक्ष के इस स्थगन से एक नया सवाल […]
– हरिवंश –
नवंबर 15, 2007 को झारखंड बने सात वर्ष होंगे. पर पहली बार झारखंड विधानसभा, एक मुद्दे पर नहीं चली. यह सवाल भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा प्रसंग था. साढ़े तीन दिन के मानसून सत्र को अचानक अनिश्चितकाल तक स्थगित करना पड़ा. झारखंड विधानसभा अध्यक्ष के इस स्थगन से एक नया सवाल खड़ा हो गया है. लोकतंत्र की आत्मा या प्राण है, विधानसभा. अगर वहां राज्य से जुड़े सवालों पर चर्चा नहीं होगी, तो विधानसभा का क्या होगा ? पर इस सवाल की चर्चा फिर कभी.
पौने सात साल का झारखंड एक ‘फेल्ड स्टेट’ है, अराजक और दिशाविहीन. जो तथ्यों को जानते हैं, उनके लिए यह विवाद का विषय नहीं है. झारखंड की सबसे बड़ी चुनौती है, भ्रष्टाचार. और यह भ्रष्टाचार, समाज या देश के लिए अब कोई नैतिक सवाल नहीं है. पर दुनिया के विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री, विश्व बैंक व अन्य प्रतिष्ठित संस्थाएं और विकास मर्मज्ञ, एक स्वर में मानते हैं कि विकास के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है, ‘भ्रष्टाचार’.
ऊपर से गांवों के लिए चला विकास का पैसा, भ्रष्टाचार का यह चुंबक खींच लेता है, नीचे तक रिसने नहीं देता. इसलिए झारखंड को तय करना है कि वह किस रास्ते जाना चाहता है ? फिलहाल जिस रास्ते वह चल रहा है, वह मुकाम अफ्रीका के ‘फेल्ड स्टेट्स’ (विफल व अराजक देश) की ओर ले जाता है. अफ्रीकन देशों के ‘केस स्टडी’ (हालात) पढ़िए, आपको झारखंड का भविष्य दिखायी देगा.
इसलिए झारखंड बनने के पहले दिन से प्रभात खबर ‘वाचडॉग’ (पहरेदार) की भूमिका में है. झारखंड आंदोलन, अलग झारखंड राज्य व अलग झारखंडी संस्कृति से इस अखबार का नाभि-नाल का रिश्ता रहा है. इसलिए पहले दिन से ‘गवर्नेस’, ‘विकास’, तेजी से बढ़ते भारत के राज्य व दुनिया’ जैसे गंभीर सवालों पर प्रभात खबर लगातार अभियान के तौर पर काम करता रहा है.
प्रतिवर्ष झारखंड स्थापना दिवस (15 नवंबर) पर निकलनेवाले विशेष अंकों में ‘भ्रष्टाचार’ पर आठ-आठ या 16-16 पेजों के परिशिष्ट निकाले हैं. पूरे देश में ‘भ्रष्टाचार’ पर इतना व्यापक सर्वे, अध्ययन और तहकीकात, शायद ही कोई समाचारपत्र करता हो. अखबार के पन्नों पर गौर करें, तो 40 से 60 फीसदी खबरें तो भ्रष्टाचार, सरकार की कार्यशैली, शासन की विफलता से ही जुड़ी होती हैं. पिछले 50 दिनों में भ्रष्टाचार पर एक विशेष सिरीज प्रकाशित हुई. किस-किस विभाग में, कहां-कहां, क्या-क्या हो रहा है?
सड़क चुरानेवालों, पुल-पुलियों को उदरस्थ कर जानेवालों, नमक चट कर जानेवालों… से लेकर ट्रांसफर इंडस्ट्री चलानेवालों पर जो तथ्य-विवरण, पिछले पौने सात वर्षों में प्रभात खबर में छपे हैं, उन पर अध्ययन कर हजारों पीएचडी व डी लिट की डिग्रियां पा सकते हैं. पर क्या हुआ? 2000 के बाद मर्ज लगातार गंभीर हो रहा है, पर निदान के लिए कोई तैयार नहीं है.
बार-बार यह सवाल मन में खड़ा होता है कि क्या हम सचमुच एक बेहतर राज्य चाहते हैं? सुशासित, प्रगतिशील, समतापूर्ण और अहिंसक? या हम पाखंड करते हैं? ‘बिनोद सिन्हा प्रकरण’ छपने के बाद, भ्रष्टाचार से जुड़े अनेक गंभीर मामलों को लेकर आनेवालों की संख्या बढ़ी है.
कुछेक दस्तावेज के साथ आते हैं, कुछेक सूचनाओं के साथ. पर पौने सात साल में गंभीर भ्रष्टाचार से जुड़े अनगिनत प्रसंग छपे हैं, लेकिन बदलाव कहां है? क्या यह सिर्फ अखबारों का दायित्व है कि वे सिर्फ खबरें छाप दें? पर अखबारों से जुड़े मुद्दों को उठा कर, मुकाम तक ले जाने का दायित्व किसका है?
दरअसल स्पष्ट हो जाना चाहिए कि लोकतंत्र में एक जागरूक अखबार की भूमिका है, सजग पहरेदारी. अखबार के पन्नों पर प्रशासनिक विफलता और व्यवस्था विफलता के गंभीर प्रकरण छपते हैं. उनके समाधान का मूल दायित्व, विधानसभा और राजनीतिक दलों का है. नागरिक संगठनों का है. सजग समाज का है. पर क्या झारखंड में प्रतिबद्ध राजनीतिक दल, जागरूक नागरिक संगठन या सजग समाज की झलक कहीं दिखायी देती है ? नहीं. झारखंड के व्यवसायियों (खासतौर से चेंबर ऑफ कॉमर्स) को छोड़ कर यह सजगता, अधिकारबोध कहीं और दिखायी नहीं देता.
झारखंड में भ्रष्टाचार की खबरों को छापने से ज्यादा जरूरी है, सिस्टम में बदलाव की पहल. इस सिस्टम से ही भ्रष्टाचार लगातार जनमता रहा है. एक के बाद एक. व्यक्ति तो रोज आयेंगे या जायेंगे, पर यह सिस्टम वह मूलस्रोत है, जहां से रोज नये पात्र या भ्रष्टाचारी प्रकटते हैं. सिस्टम में बदलाव का आशय, जहां-जहां मंत्रियों-अफसरों को विशेषाधिकार (प्रिरोगेटिव) हैं, वे खत्म हों. कोई भी बड़ा निर्णय पारदर्शी हो. न मंत्री की मन की चले, न अफसर की, बल्कि स्पष्ट रेखांकित कानून से सत्ता संचालन हो. भ्रष्टाचारियों के खिलाफ सख्त सजा तय हो. यह सब संभव है.
यह स्पष्ट होना जरूरी है कि बिना राजनीतिक हतक्षेप के कोई बड़ा काम या बदलाव संभव नहीं होता. राजनीति और सिर्फ राजनीति ही चीजें बदल सकती है. स्थिति सुधार सकती है. पर राजनीति भी अक्षम, नाकारा और अकर्मण्य हो जाये तो? इसका रास्ता दिखाया, गांधी, विनोबा और जेपी ने.
लोकतंत्र में लोकताकत वह महावत है, जो राजनीति के हाथी को अंकुश में रख सकता है. 1974-77 और 1989 के उदाहरण पुराने हों, तो बिहार में नीतीश कुमार और उत्तरप्रदेश में मायावती का उदय देख लीजिए. झारखंड में इस लोकताकत को जगाने का काम करना ही होगा. अब यही एकमात्र विकल्प है.
अब इस ‘लोकताकत’ को कौन जगायेगा? नागरिक संगठन, एनजीओ, और सचेत राजनीतिक दल. एक अत्यंत महत्वपूर्ण ताकत है, छात्रों की. झारखंड में होनेवाले छात्र संघ चुनावों से युवा राजनीति को एक नयी धार मिलेगी. अन्याय, भ्रष्टाचार, आतंक, शोषण के खिलाफ युवा रक्त में उबाल होता है. इस उबाल की आंच में झारखंड की राजनीति निश्चित ही तपेगी.
ऐसा भी नहीं हुआ, तो? याद करिए मुक्तिबोध की एक पंक्ति को, ‘एक पांव रखता हूं, तो हजार राहें फूट पड़ती हैं?’
झारखंड के जंगलों, उपत्यकाओं, पहाड़ों और मैदानी इलाकों से कोई आवाज गूंजेगी ही. कैसे? तो पढ़ लीजिए, रांगेय राघव के रेखाचित्र गेहूं का यह अंश.
एक बार
एक ही आदमी को सूली लगायी गयी थी, उस एक का परिणाम गुलामों का नजात साबित हुआ. एक ही आदमी को गोली मार दी गयी थी, उस एक का नतीजा हुआ नफरत की जलती हुई मशालें बुझ गयीं. सिर्फ 72 आदमियों ने नमक आंदोलन शुरू किया था, और उसके अंत में करोड़ों बिजलियां कौंधने लगी थीं.
एक ही बच्चे को सामंत की गाड़ी ने कुचला था, और उसके फलस्वरूप फ्रांस की गलियों में आजादी को बराबरी की पुकार लहू से भीग कर चिल्लायी थी. एक मंगल पांडेय के शरीर को गोलियों ने छेदा था, और उसके नतीजे में लाखों गरज फूट कर निकली थीं, दिल्ली चलो, दिल्ली चलो. और एक ही हब्शी को जिंदा जलाया गया था, जब अब्राहम लिंकन ने कहा था गुलामी को नेस्तनाबूद कर दो. बगावत एक ही लफ्ज है.
उसकी बुनियाद में ईमान है, उसका फैलाव इंकलाब है. उसका नतीजा तख्तों और जुल्मों को पलटनेवाली आजादी है. हजार बार दूध पीकर भी क्या इंसान एक दिन भी सांप का जहर पीना या उससे अपने को कटाना चाहता है? तो साबित हुआ कि यह एक बार भी स्थायी महत्व का है. इसका विरोध नहीं करना ही भूल है.
क्योंकि एक ही अमीचंद ने लालच से जो दस्तखत किये थे, वे करोड़ों की गुलामी का कारण बने. एक ही क्लाइव ने जो छल किया था, मुट्ठी भर मसाले के सौदागरों को तीन पीढ़ियों का ऐश दे गया.
तो न एक, चाहे व्यक्ति, चाहे क्षण, चाहे काम, और नहीं दो, वह तो बात की असलियत है. वह शाश्वत है. केंटों ने तो ढाई हजार साल पहले रोम में यह आंदोलन किया था कि रोम की सुंदरियों ने भारत की मलमल देख कर सारे रोम को लुटवा दिया. रोम की सारी दौलत हिंद चली गयी.
स्पष्ट है कि यकीन, उम्मीद और भरोसा रखें, तो झारखंड में भी हालात बदलेंगे. सिर्फ पहल करें. कर्म करें. परिणाम की चिंता छोड़ कर.
दिनांक : 26-08-07
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