शाहपुर पटोरी : पने जीविकोपार्जन को लेकर परदेश में रहने वाले लोग महापर्व छठ खत्म होते ही वापसी की तैयारी करने लगे है़ं रोजी -रोटी की तलाश में दूर दराजों में रहने वाले लोग पर्व में तो अपने गांव आये किन्तु इनकी मजबूरियां ही अपने परिवार के साथ परदेश लौटने को विवश कर रहा है़ सप्ताह भर अपने संगे संबंधियों बीच समय गुजारने के बाद फिर एक बार लम्बे अर्से के लिए अपनों से दूर जाने से इनकी आंखे भी नम हो जाती है़
गांव में रहे रहे बूढ़े -बूढ़ी अपने बेटे पूतोहू, पोते पोती को छठ महापर्व में आने की बातें सुनकर एक माह पूर्व से ही उनकी आगमन की तैयारी करने लगे थे़
नहीं है रोजगार के पर्याप्त अवसर:
परंतु फिर उनके परदेश चले जाने से इनके आशियानों में वीरानगी छा जायेगी़ क्षणिक ही सही बच्चों की किलकारियों से गुंजित घर खामोशी के नजारों में तब्दील होने लगे़ सरकारी दलीलें लगातार यह जताने में लगी हुई है कि अब अपने यहां भी पर्याप्त रोजगार के अवसर विकसित हो चुके है़ं
इन मेहनतकश युवाओं के पलायन से सरकारी दावे के पोल खोलने के लिए काफी है़ अब तो इन युवाओं के लिए अपना ही घर परदेश की तरह लगने लगा है़ महज साल में एक बार मेहमानबाजी के लिए अपने घर में लौटते हैं.
गांव का परिवेश भी अब इनके लिए माकूल नहीं रहा़ सिर्फ भूली बिसरी यादों की सायों में परदेश में एक धुधंली सी तस्वीर मानस पटल पर अंकित होती है़ पर्याप्त भूमि नहीं होने के कारण इन परदेशियों के का कहना होता है कि रोजी रोटी की तलाश में हमारी मजबूरियां होती है़
काश! शायद हमारे इलाके में भी उन्हीें की तरह संसाधन विकसित होते़ संसाधनों के अभाव में पहाड़ सी जिंदगी कैसे काटी जा सकती है़ वहीं धरतीपुत्रों को अपने बुझे मन से पलायन से खासकर ग्रामीण अंचलों में खेती के लिए श्रमशक्ति विलुप्त होती दिखती है़