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जोगीरा की धुन नहीं, गूंजता है डीजे
बदल रहा त्योहारों का जायका. परंपरागत पर्व होली पर चढ़ने लगा है पश्चिमी सभ्यता का रंग होली व दशहरा दोनों ही त्योहार िहंदुओं के िलए महत्वपूर्ण होते हैं. पूर्व में त्योहार मनाने के िलए लोग दूर-दराज से अपने घर लौट आते थे, लेकिन बीते दो दशक से होली के नाम पर महज फूहड़ता देखने को […]
बदल रहा त्योहारों का जायका. परंपरागत पर्व होली पर चढ़ने लगा है पश्चिमी सभ्यता का रंग
होली व दशहरा दोनों ही त्योहार िहंदुओं के िलए महत्वपूर्ण होते हैं. पूर्व में त्योहार मनाने के िलए लोग दूर-दराज से अपने घर लौट आते थे, लेकिन बीते दो दशक से होली के नाम पर महज फूहड़ता देखने को िमलती है. हर जगह लोग होली के नाम पर हुड़दंगई करने में खुद को अव्वल सािबत करने िदखायी देते हैं. आलम यह है िक पुरातन युग से चले आ रहे िहंदुओं के मुख्य पर्व होली पर पाश्चात्य सभ्यता हावी हो गयी है, िजससे धीरे-धीरे हमारी सभ्यता िवलुप्त सी हो रही है.
पूर्णिया : कभी बसंत पंचमी के दिन से ही वातारवरण में फगुआहट करवटें लेने लगती थी. शहर के चौक-चौराहों से लेकर गांव के चौपालों तक ढोल व मंजीरे की थाप पर होली और जोगिरा के गीत, फगुनाहट की पहचान हुआ करती थी. जोगिरा सारारा. . . . वातावरण में होली के रंग भर देता था. लेकिन जीवन की भाग-दौड़ व पश्चिमी सभ्यता का असर परंपरागत पर्व होली पर भी दिखने लगा है. यही कारण है कि पर्व का आनंद भी कम हो चला है और पर्व के सामाजिक समरसता का संदेश भी फिका पड़ने लगा है. जाहिर है समाज के लिए भी यह एक चिंता का विषय बनता जा रहा है.
डीजे पर बजता है फूहर गीत
युग परिवर्तनशील है और नये दौर के नये लोगों ने होली के नये संस्करण का इजाद किया है. इसमें होली के दिन लड़कों की टोली डीजे की धुन पर अश्लील व फूहड़ गानों पर थिरकते हैं. कई लोग शराब का भी सेवन करते हैं.
ऐसे में नशे में धुत टोलियों के बीच अश्लीलता परोसने में भी अव्वल आने की होड़ सी रहती है और सामान्य लोग खुद को असहज महसूस करते हैं. इन परिस्थितियों में हमारी सभ्यता का परिचायक पर्व होली भी सभ्य समाज के लिए परेशानी का सबब बन जाता है. वहीं श्रोताओं के मिजाज के अनुरूप कई ऐसे फूहड़ गायक व गीतकारों के लिए भी यह मौका चांदी भरा होता है. वहीं परंपरागत होली गीत लुप्त होते जा रहे हैं. ‘आज बिरज में होरी हो रसिया. . . . ‘,’होली खेले रघुवीरा अबध में . . . ‘जैसे कई कर्णप्रिय गीत अब ग्रामीण इलाकों में भी कम ही सुनने को मिलते हैं. वहीं होली के नये रूप ने भी इसके रंग को फीका कर दिया है और होली पर भी पश्चिमी सभ्यता का रंग चढ़ने लगा है.
सामाजिक समरसता का पर्व है होली
लोक परंपरा के पर्व होली को सामाजिक समरसता के प्रतिक के तौर पर देखा जाता है. इसमें अमीर-गरीब और ऊंच-नीच का भेद मिटा कर समाज के सभी लोग एकत्रित होते हैं और मिलकर पर्व का आनंद उठाते हैं. तभी तो कहा भी गया है कि बुरा ना मानो होली है. होली के कई रूप हैं और जिले में भी यह अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है. लेकिन सबसे अधिक चर्चा हुड़दंगी होली की होती है, जो लगभग लुप्त सी होती जा रही है. लोक गीतों का स्थान अब फूहर गीतों ने ले लिया है. वही पूआ, पकवान और भांग का स्थान शराब लेती जा रही है.
होली के नाम पर होती महज हुड़दंगइ
गुम हुए होली के गीत
सेवानिवृत्त शिक्षक अनादि प्रसाद सिंह बताते हैं कि कुछ वर्ष पूर्व तक शहर के विभिन्न मुहल्लों व गांव के चौपालों पर लोग वसंत पंचमी के दिन से ही होली की तैयारी में जुट जाते थे. एक स्थान पर एकत्रित हो कर लोग ढोल व मजीरे पर जोगीरा व होली गीतों का अभ्यास करते थे.
जोगीरा के गीतों से लोगों का मनोरंजन भी होता था. श्री सिंह बताते हैं कि बीते दो दशक से लगातार परंपरा का ह्रास होता जा रहा है. ढोल और मजीरा लुप्त हो गया है और जोगीरा गायन भी. होली गीतों के नाम पर भी फूहड़ गीत बजाये जाते हैं.
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