पटना : ‘आतताई को नींद न आये’ – इतना तो करना ही होगा. आज तटस्थता संभव नहीं, तटस्थता असांस्कृतिक और अभारतीय है. हमें हिम्मत और हिमाकत की जरूरत है. हमारी सार्थकता इसी में है कि हम आज के समय के विरूद्ध बोल रहे हैं. ये बातें इप्टा प्लैटिनम जुबली व्याख्यान – 4 ‘सांस्कृतिक अन्तःकरण का आयतन’ विषय पर वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी ने कहा.
उन्होंने कहा, आवश्यकता है कि इप्टा के इस 75वें साल में सांस्कृतिक अन्तःकरण को फिर से गढ़ा जाय. पूरी जिम्मेदारी और साहस के साथ हम इसे गढ़ें. हमारी अन्तःकरण की बिरादरी बहुलतावादी होगी. इस बिरादरी में वो ही बाहर होंगे जिनका न्याय, समता और बराबरी के मूल्यों में विश्वास नहीं होगा. उन्होंने देश के सांस्कृतिक-सामाजिक स्थितियों पर संस्कृतिकर्मियों को एकजुट होने के लिए आह्वान भी किया.
पी० सी० जोशी की स्मृति में बिहार इप्टा द्वारा आयोजित प्लैटिनम जुबली व्याख्यान में अशोक वाजपेयी ने कहा, आज धर्म और संस्कृति के नाम पर हत्या हो रही है, लेकिन आश्चय है कि सभी मौन हैं. कोई भी मॉब लिंचिंग के खिलाफ बोल नहीं रहा है.
आज देश में हर 15 मिनट में एक दलित पर हिंसा हो रही है. रोजाना 6 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहा है. आज देश का कोई हिस्सा नहीं बचा है, जहां से हिंसा की खबर नहीं आती.अशोक वाजपेयी ने कहा, 1942 में इप्टा ने भारत में बहुलतावादी सांस्कृतिक आंदोलन की नींव रखी. इप्टा का मंच था जहां बंगाल का अकाल और स्वतंत्रता आंदोलन के गीत बजे, नृत्य हुये. चित्रकारों ने पेंटिंग की और नाटक रचे गये. पी सी जोशी लोहिया के अलावा ऐसे राजनेता थे, जिसे राजनीति के साथ संस्कृति की समझ थी. बाद के नेताओं में उसकी कमी नजर आयी.
देश की मौजूदा हालात पर चर्चा करते हुए वाजपेयी ने कहा, देश में हिंसा और भीड़तंत्र की संस्कृति पनप रही है. दुर्भाग्य से इसे लोक सहमति भी मिल रही है. सांस्कृतिक अन्तःकरण, धार्मिक अन्तःकरण और मीडिया में अन्तःकरण समाप्त हो गया है. कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती.
ऐसे वक्त में क्या सांस्कृतिक अन्तःकरण संभव है? हिंदी साहित्य पूरी तरह से अप्रासंगिक होने के मुकाम पर पहुंच गया है. ऐसा इसलिए क्योंकि हिंदी साहित्य कहीं से भी आज के समय को पुष्ट नहीं करता है. झूठ, धर्मान्ध, हिंसा का नया भारत पैदा हो रहा है. ज्ञान, लज्जा, नैतिकता को भूलता भारत पैदा हो रहा है.
कार्यक्रम की शुरुआत में पटना विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रो तरूण कुमार ने कहा है कि आज के दौर में मुक्तिबोध के शब्द एक बार फिर से प्रासंगिक होते हैं कि क्या कभी अंधेरे समय में रोशनी भी होती है? इस अवसर पर बड़ी संख्या में कवि, लेखक, साहित्यकार, कलाकार और संस्कृमिकर्मी मौजूद थे.