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पटना : सियासत के मेले में अकेले रह गये लोकनायक जेपी
अनुज शर्मा पटना : 25 जून 1975. यह आपातकाल की तारीख थी. इसकी परिस्थितियां जिस केंद्र से बनी वह पटना का कदमकुआं स्थित जय प्रकाश नारायण का आश्रम (महिला चर्खा समिति) 25 जून की ऐतिहासिक तारीख को भी सन्नाटे में डूबा रहा. समूचे दिन इंतजार करता रहा कि जेपी के आंदोलन के दौर का कोई […]
अनुज शर्मा
पटना : 25 जून 1975. यह आपातकाल की तारीख थी. इसकी परिस्थितियां जिस केंद्र से बनी वह पटना का कदमकुआं स्थित जय प्रकाश नारायण का आश्रम (महिला चर्खा समिति) 25 जून की ऐतिहासिक तारीख को भी सन्नाटे में डूबा रहा. समूचे दिन इंतजार करता रहा कि जेपी के आंदोलन के दौर का कोई व्यक्ति आयेगा और उनकी स्मृतियों को जीवंत करेगा.
मगर ऐसा हुआ नहीं. जेपी निवास का दालान, संग्रहालय और पुस्तकालय उस दौर में सिपाही की तरह साथ रहे सभी आंदोलनकारियों की बड़ी उदास नजरों से राह देखता रहा, लेकिन इनकी तो छोड़िये इनका कोई प्रतिनिधि तक नहीं आया. सोमवार की दोपहर करीब एक बजे प्रभात खबर संवाददाता जब जेपी के आश्रम पहुंचा तो वहां आपातकाल जैसा ही सन्नाटा पसरा हुआ था.
महिला चर्खा समिति की अध्यक्ष एवं आपातकाल के समय मगध महिला कॉलेज में अंग्रेजी की प्रवक्ता रहीं डॉ तारा चंद सिन्हा, डाॅ मृदुला प्रकाश अपने रुटीन काम निबटा रही थीं. शोध एवं म्यूजियम प्रभारी माला कुमारी अपने कक्ष में थीं. चंदा देवी चौकी पर बैठी हुई थीं. बाहर भी दो चौकीदार थे.
इसके अलावा वहां कोई नहीं था. आपातकाल और जेपी को लेकर यहां मौजूद लोगों से बात की तो मर्म यही था कि लोग जेपी के साथ रहकर सियासतदां तो बन गये लेकिन महानायक को भूल गये. इनके लिए जेपी और उनका आश्रम जरूरत पर जाने वाली स्थली बनकर रह गया है.
यह सच भी है, आपातकाल की बरसी पर देश के विभिन्न हिस्सों में जेपी को याद किया जा रहा था. उनको लेकर कार्यक्रम हो रहे थे लेकिन अपने घर में ही वह अकेले थे. आम आदमी भी जेपी निवास पहुंच कर उनके विचारों को बांचने की औपचारिकता नहीं निभाना चाह रहा था.
आपातकाल की बरसी पर विशेष
जेल में बंद जेपी पटना और सुरेश की बहादुरी काे करते थे याद
इमरजेंसी के दौरान जेल में बंद लोकनायक जयप्रकाश नारायण को पटना की याद सताती थी. वहीं पूरी दुनिया जिनकी ताकत के आगे नतमस्तक थी उस इंदिरा गांधी को लोहे के चने चबाने वाले जेपी उस गुमनाम युवक सुरेश की बहादुरी के कायल थे, जिसने जान की बाजी लगाकर लोगों की मदद की थी.
पांच सितंबर 1975 को जेल डायरी में इसका जिक्र है. वह लिखते हैं, यह नौजवान सुरेश कौन है? अवश्य ही बड़ा साहसी और दयावान होगा. उसने सबसे पहले सहायता कार्य प्रारंभ किया. गहरे पानी को पार करते हुए बिस्कुट और दूसरे सामान के साथ लोगों के पास पहुंचा.
.. इस घड़ी में मेरा पटना और बिहार जाने के लिए मन कितना लालायित है, मगर अफसोस!… ईश्वर की अनुकंपा रही तो मैं अवश्य वहां जाऊंगा.
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