सूर्यगढ़ा : षष्ठी माता व सूर्य भगवान की संयुक्त उपासना छठ व्रत में होती है. कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सायं काल अस्ताचलगामी सूर्य की लालिमा में षष्ठी माता कोअर्घ प्रदान किया जाता है.
दूसरे दिन उदीयमान सूर्य की लालिमा में षष्ठी माता को दूसरा अर्घ्य प्रदान किया जाता है. ज्योतिषाचार्य उमाशंकर व्यास जी ने बताया कि मिट्टी के दो टुकड़ों में षष्ठी माता व सूर्य का एक साथ पूजा होता है. सभी प्रसाद जोड़ा संख्या में अर्पित किये जाते हैं. मुख्य प्रसाद ठेकुआ में सूर्य के रथ का चक्र चिह्न रहता है. अर्घ्य व पूजन में एक ही वस्त्र धारण करना सूर्य षष्ठी व्रत की विशेषता है. उक्त व्रत का शुभारंभ सर्व प्रधान च्यवन ऋषि की पत्नी सुकन्या ने किया था.
नाग कन्या के उपदेश से उन्होंने व्रत करके अपने नेत्रहीन पति को निरोग व नेत्रयुक्त किया. उक्त बातें भविष्योत्तर पुराण में वर्णित है. इस व्रत के आचरण में पांडव पत्नी द्रोपदी को खोया हुआ राज्य व धन प्राप्त हुआ था. ब्रह्मवर्त पुराण के अनुसार राजा प्रियवत की पत्नी मालिनी का मृत पुत्र षष्ठी माता की कृपा से जीवित हुआ और दीर्घायु हुआ था. षष्ठी माता पुत्र देती है और उसे दीर्घायु करती है. सूर्य भगवान आरोग्य पुत्र व धन प्रदान करते हैं. सम्राट जरासंध के पूर्वज का कुष्ठ निवारण छठ व्रत से ही हुआ था.