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महर्षि मेंहीं ने सभी धर्मों के संतों के मत को जोड़ा

संतमत सत्संग के संस्थापक महर्षि मेंहीं ने सभी धर्म के संतों के मत को जोड़ने का काम किया.

संतमत सत्संग के संस्थापक महर्षि मेंहीं ने सभी धर्म के संतों के मत को जोड़ने का काम किया. इस बार उनकी जयंती 22 मई को महर्षि मेंहीं आश्रम, कुप्पाघाट समेत देशभर में मनाया जायेगा. उनका जन्म 28 अप्रैल 1885 को एवं हिंदी तिथि के अनुसार विक्रम संवत् 1642 के वैशाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के उदाकिशुनगंज थाने के खोखशी-श्याम -मझुआ में अपने नाना के यहां हुआ था. संतों की परंपरा को बरकरार रखते हुए अंग क्षेत्र के भागलपुर को अपना मूल कर्मस्थली बनाया और कुप्पाघाट में तप किया.

पंकज बाबा ने बताया कि कि समय-समय पर व्यास, वाल्मीकि, शुकदेव, नारद, याज्ञवल्क्य, जनक, वशिष्ठ, दधीचि, बुद्ध, महावीर, शंकर, रामानन्द, नानक, कबीर, सूर, तुलसी, विवेकानंद, रामतीर्थ आदि-जैसे सन्त-मनीषी अवतरित होते रहे हैं. इन्हीं ऋषियों और सन्तों की दीर्घकालीन अविच्छिन्न परम्परा की एक अद्भुत कड़ी के रूप में महर्षि मेंहीं परमहंस महाराज आये.

ज्योतिषी ने इनका जन्म-राशि का नाम रामानुग्रहलाल दास रखा. बाद में इनके पिता के चाचा भरतलाल दास ने इनका नाम बदलकर मेंहीं लाल रख दिया. कालान्तर में इनके अंतिम सद्गुरूदेव बाबा देवी साहब ने भी इनके इस नाम की सार्थकता का सहर्ष समर्थन किया. महर्षिजी का पितृ गृह पूर्णिया जिलान्तर्गत बनमखी थाने के सिकलीगढ़ धरहरा नामक ग्राम में अवस्थित है. मैथिली कर्ण कायस्थ कुलोत्पन्न इनके पिताश्री बबुजनलाल दास आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न थे, वर्षों तक बनैली राज के एक कर्मचारी रहे. जब महर्षि को इनके पिता और इनकी बड़ी बहन झूलन दायजी ने इतने स्नेह और सुख-सुविधापूर्ण वातावरण में पालित-पोषित किया तो इन्हें माता का अभाव कभी नहीं खटका.

प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त करके इन्होंने 11 वर्ष की अवस्था में पूर्णिया जिला स्कूल में पुराने अष्टम वर्ग में अपना नाम लिखवाया. यहां उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के कक्षा की पाठ्य पुस्तकें पढ़नें के साथ-साथ पूर्व आध्यात्मिक संस्कार से प्रेरित होकर रामचरितमानस, महाभारत, सुखसागर आदि धर्मग्रन्थों से अवगत हुए. शिव को इष्ट मानकर उन्हें जल चढ़ाया. अवधि सन् 1909 ई0 में इन्होने जोतरामराय (जिला पूर्णियाँ) के एक दरियापंथी साधु सन्त श्री रामानन्द जी से मानस जप, मानस ध्यान और खुले नेत्रों से किये जानेवाले त्राटक की दीक्षा ले ली और नियमित रूप से अभ्यास भी करने लगे. योग-साधना की और बढ़ती हुई अभिरूचि के कारण अब ये पाठ्य पुस्तकों की ओर उदासीन होने लगे और साधु-संतों की संगति बढ़ती गयी.

तीन जुलाई 1904 उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट रहा और मैट्रिक की परीक्षा में प्रश्न-पत्र में कविता की जिन प्रारंभिक चार पंक्तियों उद्धत करके उनकी व्याख्या करने को कहा गया था, इसमें डूब गये और वैराग्य उत्पन्न हो गया. रामचरितमानस की चौपाई ‘देह धरे कर यहि फल भाई। भजिय राम सब काम बिहाई।।’ लिखकर परीक्षा-भवन से निकल गये. फिर स्कूल कभी नहीं गये.

1912 में बाबा देवी साहब ने स्वेच्छा से इन्हें शब्दयोग की विधि बतलाते हुए कहा कि अभी तुम दस वर्ष तक केवल दृष्टियोग का ही अभ्यास करते रहना. दृष्टियोग में पूर्ण हो जाने पर ही शब्दयोग का अभ्यास करना. शब्दयोग की क्रिया अभी मैंने तुम्हे इसलिए बतला दी की यह तुम्हारी जानकारी में रहे. 1918 में सिकलिगढ़-धरहरा में इन्होने जमीन के नीचे एक ध्यानकूप बनाया और उसमें लगातार तीन महीने तक एकांत में रहकर साधना की. इनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गये. 19 जनवरी 1919 को बाबा देवी साहब के परिनिवृत हो जाने के बाद इनके मन में इसी जीवन में मोक्ष प्राप्त कर लेने का प्रबल संवेग सतत् उठता रहा. 1933-34 में इन्होने पूर्ण तत्परता के साथ 18 महीने तक भागलपुर के कुप्पाघाट की गुफा में शब्दयोग की अत्यन्त गंभीर साधना की, फलस्वरूप ये आत्म-साक्षात्कार में सफल हो गये. फिर संतमत प्रचार-प्रसार करते हुए संत महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 8 जून 1986 रविवार को जीवन के 101 वर्ष पूरे करके इस संसार से महाप्रयाण कर गये.

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