अक्सर हम जीवन में दूसरों पर दोष लगाते हैं. हमें जीवन में दुख किसी व्यक्ति या किसी चीज से नहीं मिलता. यह तुम्हारा अपना मन है, जो तुम्हें दुखी करता है और तुम्हारा अपना मन है, जो तुम्हें खुश और उत्साहित बनाता है. तुम्हारे पास जो भी है, अगर तुम उससे पूरी तरह से संतुष्ट हो, तो जीवन में कोई आकांक्षा नहीं रह जाती.
आकांक्षा जरूरी है, लेकिन अगर तुम उसके लिए उत्तेजित रहोगे, तो वही उत्तेजना बाधा बन जायेगी. केवल एक संकल्प रखो, यह है जो मुझे चाहिए-और उसे छोड़ दो! हम अपनी नकारात्मक भावनाओं के जरिये वातावरण को सूक्ष्म रूप से प्रदूषित करते हैं. कभी-कभी तनाव और नकारात्मकता से हम नहीं बच पाते. कभी-कभी सब प्रकार की भावनाओं से गुजरते हो.
कभी तुम निर्बल और दिशाहीन महसूस करते हो. ऐसा होना किसी को पसंद नहीं, लेकिन ऐसा होता है. तो ऐसी स्थिति को किस तरह संभालें, ऐसी चीजों के बारे में हम बहुत सुनते हैं, लेकिन अपने आप को सुनने में हम बहुत कम समय बिताते हैं. यह सबसे ज्यादा दुर्भाग्य की बात है.
हमारी सांस हमें एक बहुत महत्वपूर्ण सीख देती है, जो हम भूल गये हैं, मन की हरेक लय के अनुसार एक विशेष सांस की लय जुड़ी है, और सांस की हरेक लय के अनुसार एक विशेष भावना जुड़ी है. तो जब तुम प्रत्यक्ष रूप से अपना मन संभाल नहीं सकते, तब सांस द्वारा मन को संभाल सकते हो. एक और उपाय है जोश का आह्वान करना. जब अर्जुन कमजोर और असहाय महसूस कर रहे थे, कृष्ण ने यही किया था. उन्होंने कहा, तुम शर्मिंदा नहीं हो तुम एक योद्धा हो और ऐसी बातें कह रहे हो. कृष्ण ने अर्जुन के अवसाद पर काबू पाने के लिए उनके अहंकार को हिलाया और फिर उन्हें ज्ञान की तरफ ले गये.
वह सिर्फ जोश नहीं था, लेकिन साथ में होश भी था. कुछ भी करने के लिए व्यक्ति को जोश और होश दोनों की जरूरत है. अपने जोश को जगाओ, पर होश में भी रहो. जोश जगाने से एक कमजोर व्यक्ति भी लड़ने के लिए तैयार हो जाता है. जीवन 98 फीसद सुख है और 2 फीसद दुख. लेकिन हम उस 2 फीसद को पकड़े रहते हैं और उसे 98 फीसद बना देते हैं. यह जीवन एक सुंदर रहस्य है.
– श्री श्री रविशंकर