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गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों से कमा रहीं शुभ-लाभ
कभी-कभी हम जो करना चाहते है, वह कर नहीं पाते. तब मायूस हो कर बैठ जाते हैं. लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो मजबूरी का रोना नहीं रोते और अपने रास्ते बना ही लेते हैं. ऐसी ही हैं कोलकाता से पटना आकर बसीं रानी गुप्ता. रानी पढ़-लिख कर बैंक अधिकारी बनना चाहती थीं. पर […]
कभी-कभी हम जो करना चाहते है, वह कर नहीं पाते. तब मायूस हो कर बैठ जाते हैं. लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो मजबूरी का रोना नहीं रोते और अपने रास्ते बना ही लेते हैं. ऐसी ही हैं कोलकाता से पटना आकर बसीं रानी गुप्ता. रानी पढ़-लिख कर बैंक अधिकारी बनना चाहती थीं. पर बेटी होने के कारण दादी के सामने रानी की एक नहीं चली. 11वीं तक ही पढ़ सकी. ऐसे में निराश होने के बदले रानी ने बचपन के एक शौक को कैरियर का लक्ष्य बना लिया. वह अलग-अलग क्रियेटिव वर्क करने लगी. आज रानी गुप्ता गिफ्ट पैकिंग से लेकर कुकिंग और हर तरह की मेकिंग का काम कर रही हैं.
एक शौक को प्रोफेशन
बचपन में लड़कियां मिट्टी या प्लास्टिक की मूर्तियों से खेलती हैं. बड़े होने पर वह खेल पीछे छूट जाते हैं. लेकिन रानी ने बचपन के शौक को प्रोफेशन बना लिया. आज वह अपनी मूर्तियों पर इनोवेशन करती है. रानी गुप्ता ने बताया कि बेसिक रूप से वह गणेश-लक्ष्मी की मूर्ति बनाती है. लेकिन कोई ऑर्डर करता है, तो दूसरी तरह की मूर्ति भी बनाती है. दीपावली को लेकर साल भर ऑर्डर आता रहता है. सीजन के अनुसार गणेश-लक्ष्मी के ड्रेस आदि में चेंज भी करती हूं. जैसे इस साल गणेशजी को मोतियों की ज्वेलरी से सजाया और मां लक्ष्मी को बनारसी साड़ी से आकर्षक लुक दिया.
विदेशों तक बनी पहचान
रानी की मूर्तियां न सिर्फ देश, बल्कि विदेशों तक जाती हैं. पटना, गया, दिल्ली, कोलकाता के मार्केट के अलावा अमेरिका से भी उन्हें मूर्ति के ऑर्डर आते हैं. रानी बताती हैं कि मैंने दुकान नहीं खोला है. मात्र दो हजार रुपये की पू्ंजी से घर पर मूर्ति बनाने का काम शुरू किया. अब तो ऑनलाइन ऑर्डर लेती हूं. बाहर रहनेवाले लोगों को स्काइप पर ऑनलाइन मूर्ति दिखाती हूं. जिन्हें पसंद आ जाता है, उन्हें मूर्ति भेज देती हूं.
मां का मिला पूरा सहयोग
शादी जल्दी हो जाने से रानी पारिवारिक जिम्मेवारी आ गयी. कोलकाता से पटना आना पडा. नया शहर होने से समझ नहीं आता था कि कहां से और कैसे काम शुरू करूं. तब मां बेला गुप्ता का सहयोग मिला. रानी कहती हैं, कोलकाता से सारा मेटेरियल खरीद कर मां मुझे पटना भेजती थीं. उन्हें रॉ मेटेरियल के लिए कहीं जाना नहीं पड़ा. तब काम अच्छे से शुरू कर पायी. शुरुआत में 30 मूर्ति से अधिक नहीं बना पाती थी. लेकिन अब ढाई सौ से तीन सौ तक मूर्ति बना लेती हूं.
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