।। श्रीपति त्रिपाठी ।।
प्राचीन काल में सुमंतु नाम के एक वरिष्ठ गोत्रीय मुनि थे. उनकी पत्नी का नाम दीक्षा और पुत्री का नाम शीला था. दीक्षा के मृत्यु के पश्चात सुमंतु मुनि ने करकश से विवाह कर लिया. विवाहोपरांत करकश शीला को बहुत परेशान करती थी, लेकिन, शीला अत्यंत सुशील थी. सुमंतु ने अपनी पुत्री का विवाह कौंडिन्य मुनि के साथ कर दिया. आरंभ में सभी साथ ही रहते थे, पर सौतेली मां का व्यवहार देख कर कौंडिन्य मुनि वह आश्रम छोड़ कर चले गये.
वे जब आश्रम का परित्याग कर आगे बढ़े, तो एक दिन नदी के तट पर कौंडिन्य मुनि स्नान हेतु रुक गये. तभी स्त्रियों का एक झुंड अनंत पूजन करने के लिए नदी के तट पर आया. शीला उस झुंड में शामिल हो गयी और उनसे व्रत के बारे में पूछा. स्त्रियों ने उसे व्रत की सारी महिमा का बखान किया. उन्होंने कहा कि यह अनंत चतुर्दशी का व्रत है और इसे करने से पाप नष्ट होते हैं और सुख-शांति की प्राप्ती होती है.
इस व्रत को करने के लिए नित्य कर्म आदि से निवृत्त होकर, स्नान कर प्रसाद में घरगा और अनरसे का विशेष भोजन तैयार किया जाता है. आधा भोजन ब्राह्मण को दान दिया जाता है. यह पूजा किसी नदी या सरोवर के किनारे होती है, इसलिए हम सब यहां आये हैं. दूभ या दूर्वा से नाग का आकर बनाया जाता है, जिसे बांस की टोकरी में रख कर घर लाते हैं, फिर इस नागशेष अवतार की फूल और अगरबत्ती आदि से पूजा की जाती है. दीप, धूप से पूजन के बाद एक सिल्क का सूत्र भगवान को चढ़ाते हैं, जिसे पूजा के बाद कलाई या भुजा में पहन लिया जाता है. यह सूत्र ही अनंत सूत्र हैं. इस अनंत के सूत्र में 14 गांठें होती हैं और इसे कुमकुम से रंग कर स्त्रियां दाहिने हाथ में और पुरुष बाएं हाथ में पहनते हैं. यह अनंत सूत्र बांधने से सुख-सौभाग्य में वृद्धि के साथ दैवीय वैभव की प्राप्ति भी होती है.
पूजन सुनने के बाद शीला ने भी व्रत करने का संकल्प लिया. शीला ने भाद्र पद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनंत भगवान का व्रत किया और अनंत सूत्र अपने बाएं हाथ में बांधा. भगवान अनंत की कृपा से शीला और कौंडिन्य के घर में सभी प्रकार की सुख-समृद्धि आ गयी. उनका जीवन सुखमय हो गया. एक दिन कौंडिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के हाथ में बंधे अनंत सूत्र पर पड़ी, जिसे देख कर वह भ्रमित हो गये और उन्होंने पूछा, तुमने यह क्या बांधा हैं? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है. अनंत जी का पूजन आरंभ करने के बाद ही हमें यह वैभव और सुख प्राप्त हुआ है.
परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौंडिन्य ने पत्नी की बात को गलत समझा. उस वैभव का कारण उन्होंने अपने परिश्रम और बुद्धिमता को बताया और अनंत सूत्र को जादू-मंतर, वशीकरण करने का डोरा समझा. दुर्भाग्यवश एक दिन कौंडिन्य मुनि ने क्रोध में आकर शीला के हाथ में बंधा अनंत सूत्र तोड़ कर आग में फेंक दिया. इसके बाद उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गयी. वे बहुत दुखी रहने लगे.
कौंडिन्य मुनि को आभास हो गया था कि वह सारा वैभव अनंत व्रत के प्रभाव से ही था. उन्होंने तभी संकल्प किया कि वह अपने इस गलत कृत का प्रायश्चित करेंगे और तब तक ताप करेंगे जब तक कि भगवान अनंत स्वयं उन्हें दर्शन न दे दें. कौंडिन्य मुनि अनंत भगवान को ढ़ूंढ़ने के लिए वन चले गये. उन्होंने लता, वृक्ष, जीव-जंतुओं से अनंत भगवान का पता पूछा, पर सब ने मना कर दिया.
वे निराश होकर अपने जीवन का अंत करने की सोच आगे बढ़े, तभी दयानिधि भगवान अनंत ने वृद्ध ब्राह्मण के रूप में कौंडिन्य मुनि को दर्शन दिया और अनंत व्रत करने को कहा. भगवान ने मुनि से कहा, तुमने जिस अनंत सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है. इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनंत व्रत का पालन करो. तुम्हारी नष्ट हुई संपत्ति तुम्हें पुन: प्राप्त हो जायेगी. कौंडिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया. शीला और कौंडिन्य मुनि ने अनंत व्रत किया और वे पुन: सुख पूर्वक रहने लगे.