Maulana Abul Kalam Azad : शब्दों, सुरों और चाय की खुशबू में बसा एक आधुनिक फकीर, मौलाना अबुल कलाम आजाद
Maulana Abul Kalam Azad : जब रांची की ठंडी रातों में कोई मौलाना अबुल कलाम आजाद से मिलने कंधार से पैदल चलकर सिर्फ इतना कहने आता है, “मैं कुरान के कुछ हिस्से समझना चाहता हूं, मैंने अल-हिलाल का हर शब्द पढ़ा है,” तो समझिए, किसी कलम की नोक ने सिर्फ स्याही नहीं, इतिहास भी लिखा है.
Maulana Abul Kalam Azad : मौलाना अबुल कलाम आजाद, वो नाम जो आजादी की लड़ाई में सिर्फ एक नेता नहीं, बल्कि विचारों के रहबर बनकर उभरा. वे धर्म के ज्ञाता थे, दर्शन के साधक थे, संगीत के प्रेमी थे और चाय के रसिक. उनकी कलम ने जब इतिहास लिखा, तो उसमें इल्म, इंसानियत और इश्क, तीनों की खुशबू थी.
एक रूहानी शुरुआत- मक्का से कोलकाता तक
1888 में मक्का में जन्मे अबुल कलाम आजाद का असली नाम मुहिउद्दीन अहमद था. उनके पिता मौलाना सैयद मुहम्मद खैरुद्दीन और माता आलिया बिंत-ए-मुहम्मद दोनों ही गहन धार्मिक और विद्वान परिवार से थे.
आजाद की प्रारंभिक शिक्षा उनके पिता से शुरू हुई, फिर वे मिस्र की प्रसिद्ध जामिया अल-अजहर यूनिवर्सिटी में पढ़ने चले गए.
अरब की रेत और इल्म की हवा लेकर जब वे हिंदुस्तान लौटे, तो कलकत्ता उनकी कर्मभूमि बना. यहीं से उन्होंने अपनी कलम को हथियार बनाया. एक ऐसा हथियार, जो न बंदूक था, न तलवार, लेकिन जिसके शब्दों से साम्राज्य हिलने लगे.
अल-हिलाल और अल-बलाग से लड़ी गई आजादी की जंग
1908 में जब युवा अबुल कलाम कलकत्ता पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि हिंदुस्तान अंग्रेज़ी शासन के नीचे घुट रहा है. उन्होंने तय किया कि जनता को जगाना होगा और इसके लिए अख़बार से बेहतर कोई मंच नहीं हो सकता.
1912 में उन्होंने अल-हिलाल नाम से एक उर्दू साप्ताहिक निकाला. यह सिर्फ अखबार नहीं, एक आंदोलन था. इसमें आजाद धार्मिक व्याख्या के जरिए स्वतंत्रता का संदेश देते. वे कुरान, इतिहास और दर्शन को मिलाकर ब्रिटिश शासन के अन्याय को उजागर करते थे.
उनके लेख इतने तीखे और विचार इतने गहरे थे कि ब्रिटिश सरकार ने 1914 में अल-हिलाल पर प्रतिबंध लगा दिया. लेकिन आजाद झुके नहीं. उन्होंने 1915 में अल-बलाग निकाला , वही आवाज, नए नाम से.
1916 में जब ब्रिटिश हुकूमत ने इस पत्र को भी बंद किया, तो आजाद को रांची निर्वासित कर दिया गया. पर यह निर्वासन उनके विचारों को और प्रखर बना गया.
वहां भी उन्होंने लिखा, सिखाया और लोगों के मन में यह यकीन जगाया कि “ज्ञान ही मुक्ति है.”
पत्रकारिता का शेर- कलम से क्रांति तक
अल-हिलाल और अल-बलाग़ से पहले भी आजाद ने कई अखबारों और पत्रिकाओं में लेख लिखे. 1901 में उन्होंने अस्सबाह निकाला .इसका पहला सम्पादकीय ‘ईद’ शीर्षक से था. यह इतना प्रभावशाली था कि पैसा अखबार समेत कई अखबारों ने इसे दोबारा छापा.
यहीं से उनका सफर शुरू हुआ, नैरंगे आलम, अहसानुल-अखबार, मखजन और मुरक्कये आलम जैसी पत्रिकाओं में उन्होंने लगातार लिखा. उनका लेखन सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं था उसमें धर्म, दर्शन, शिक्षा, और समाज के बारीक ताने-बाने का गहरा विश्लेषण था. उन्होंने पत्रकारिता को मिशन बना दिया. उनका मानना था —
“अखबार सिर्फ खबर नहीं देते, वे विचार देते हैं और विचार ही समाज बदलते हैं.”
जब कंधार से आया एक पैदल मुसाफिर
रांची में नजरबंदी के दिनों की एक घटना मौलाना आजाद ने तरजुमान उल कुरान में लिखी. एक ठंडी रात थी. मस्जिद से बाहर निकलते वक्त उन्होंने देखा एक आदमी कंबल ओढ़े खड़ा है.
वह बोला “जनाब, मैं कंधार से आया हूं… पैदल.”
आजाद ने हैरानी से पूछा “इतनी तकलीफ क्यों?”
वह बोला “अल-हिलाल और अल-बलाग के हर शब्द ने मेरी रूह को हिला दिया. मैं कुरान को आपके जरिए समझना चाहता हूं.”
यह वही दौर था जब एक अखबार का संपादक, जो ब्रिटिश हुकूमत के लिए खतरा था, आम आदमी के लिए एक रहबर बन चुका था.
वह व्यक्ति कुछ दिन रांचा में ठहरा और बिना कुछ कहे लौट गया ताकि मौलाना उसे पैसे न दे सकें.
यह घटना बताती है कि मौलाना की कलम सिर्फ विचार नहीं लिखती थी, विश्वास जगाती थी.
ग़ुबार-ए-ख़ातिर,जेल की दीवारों से निकली इल्हाम की ख़ुशबू
1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन चला, मौलाना आज़ाद अहमदनगर किले में कैद कर दिए गए. लेकिन जेल की तन्हाई उनके लिए बंदिश नहीं बनी, बल्कि चिंतन का समय बन गई. वहीं से उन्होंने अपने दोस्त नवाब सद्र यार जंग को दर्जनों खत लिखे, जिन्हें बाद में ग़ुबार-ए-ख़ातिर नाम से प्रकाशित किया गया.
इन पत्रों में राजनीति नहीं थी, बल्कि जीवन की गहराई, धर्म की व्याख्या, मौसम, पक्षियों और सबसे बढ़कर चाय की महक थी।
वो लिखते हैं —
“एक मुद्दत से जिस चीनी चाय का आदी हूं, वह ‘व्हाइट जैस्मिन’ कहलाती है. इसकी खुशबू जितनी मुलायम है, उसका कैफ उतना ही तेज।”
चाय, सिगरेट और तन्हाई का संगीत
मौलाना आज़ाद चाय के असली रसिक थे. वे दूध-चीनी वाली “भारतीय चाय” के घोर विरोधी थे. कहते थे , “यह चाय नहीं, एक तरल हलवा है. लोग चाय में दूध नहीं डालते, बल्कि दूध में चाय डाल देते हैं.”
वे रूसी फिजान में चाय पीते थे छोटे प्यालों में, छोटे-छोटे घूंट लेकर. उनकी अपनी विधि थी एक घूंट चाय, एक कश सिगरेट और फिर विचार का एक नया प्रवाह.
वे लिखते हैं-
“मैंने चाय की लताफ़त को तंबाकू की तल्ख़ी से मिलाकर एक नया नशा तैयार किया है. जब आखिरी घूंट खत्म होता है, सिगरेट भी अपने अंतिम खिंचाव पर होती है.”
उनके ये खत पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानो वे चाय के प्याले में दर्शन घोल रहे हों.
जब संगीत बना साधना- राग, सितार और मौलाना
बहुत कम लोग जानते हैं कि मौलाना अबुल कलाम आजाद संगीत के गहरे रसिक थे. ग़ुबार-ए-ख़ातिर के आखिरी पत्र में उन्होंने अपने संगीत प्रेम का अद्भुत वर्णन किया है. कलकत्ता की खुदा बख़्श बुकस्टोर में उन्हें एक दिन फारसी पुस्तक राग-दर्पण मिली सैफ खान द्वारा संस्कृत से अनूदित.
जब अंग्रेज प्रिंसिपल ने कहा — “तुम इसे नहीं समझ पाओगे,” तो मौलाना के भीतर एक चुनौती जागी. उन्होंने संगीत सीखने की ठान ली. मसीता खान नाम की एक बुज़ुर्ग संगीत शिक्षिका ने उन्हें सितार और सुरों की शिक्षा दी.
चार साल तक मौलाना गुप्त रूप से संगीत सीखते रहे. उनकी उंगलियों ने जब पहली बार सितार के तार छुए, तो जैसे इल्म और सुर का संगम हुआ.
मौलाना आजाद का संगीत प्रेम सिर्फ शिक्षा तक नहीं रहा. एक बार वे आगरा गए, मार्च की ठंडी रातें, आधी रात का सन्नाटा. वे ताजमहल के पास यमुना किनारे बैठे और सितार बजाने लगे.
उन्होंने लिखा —
“ताज का सफेद गुंबद चांदनी में नहाया था. जब मैंने सितार का पहला सुर छेड़ा, तो लगा जैसे हवा भी ठहर गई हो. मीनारें झूम उठीं, पेड़ों की डालियां थरथराईं और ताज ने अपनी खामोशी तोड़ दी.”
यह दृश्य सिर्फ संगीत नहीं था यह आत्मा का संवाद था. एक धार्मिक नेता, एक दार्शनिक और एक कलाकार तीनों उस पल एक हो गए थे.
राजनीति से परे एक आत्मा की यात्रा
मौलाना आज़ाद का जीवन यह बताता है कि आजादी सिर्फ बंदिशों से मुक्ति नहीं, बल्कि सोच की स्वतंत्रता भी है. उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत से लड़ा, लेकिन नफरत नहीं पाली. उन्होंने इस्लाम की व्याख्या आधुनिक संदर्भों में की और हिंदू-मुस्लिम एकता को अपनी जीवन-रेखा बनाया. उनका कहना था —
“धर्म अगर बांटे, तो वह धर्म नहीं, राजनीति है और राजनीति अगर जोड़े, तो वही सच्ची इबादत है.”
विरासत जो आज भी जीवित है
आजाद का जीवन चाय की भाप की तरह है, देखने में हल्का, पर भीतर गहराई से भरा हुआ. उन्होंने शिक्षा मंत्रालय की नींव रखी, आईआईटी और यूजीसी जैसे संस्थान बनाए और देश के भविष्य की दिशा तय की.
लेकिन उनकी असली विरासत उनके विचार हैं — उनकी कलम, उनका संगीत और उनका मानवीय दृष्टिकोण. वे हमें सिखाते हैं कि बुद्धि का इस्तेमाल तब तक अधूरा है, जब तक उसमें करुणा न हो.
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जीवन उस सितार की तरह है, जो कभी टूटता नहीं. कभी ‘अल-हिलाल’ के पन्नों पर गूंजता है, कभी ‘ग़ुबार-ए-ख़ातिर’ के खतों में और कभी ताजमहल की चांदनी में बजते सुरों में.
वे सिर्फ एक नेता नहीं थे वे एक संवेदनशील आत्मा थे, जो जीवन की हर सुंदरता को महसूस करना जानते थे.
संदर्भ
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, अनु.-मदनलाल जैन, भूमिका- प्रो.हुमायूं कबीर,गुबारे-ए-खातिर, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली,
अर्श मलसियानी, आधुनिक भारत के निर्मता, मौलाना अबुल कलाम आजाद,प्रकाशन विभाग
कृष्ण गोपाल, आजाद की कहानी, ओरियंट ब्लैकस्वान,2022
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