Kudmi movement : कौन हैं कुड़मी या कुरमी? आखिर क्यों करते हैं एसटी कैटेगरी में शामिल करने की मांग
Kudmi movement in Jharkhand : झारखंड में कौन है कुड़मी या कुरमी? क्या इनका संबंध मराठा साम्राज्य के शासकों से था या फिर ये बिहार के कुर्मियों के वंशज हैं? कुछ दावे ये भी कहते हैं कि झारखंड में कुड़मी पाषाणकाल से रहते आए हैं. आज के समय में कुड़मी समाज ओबीसी का हिस्सा है, लेकिन वे लगातार इस बात के लिए आंदोलन कर रहे हैं कि हम आदिवासी हैं और हमें एसटी कैटेगरी में शामिल किया जाए. क्या कुड़मियों का आदिवासी होने का दावा सही है या वे उस जाति समूह का हिस्सा हैं, जब कोई जनजाति, जाति बनने की ओर अग्रसर हो जाती है? झारखंड अलग राज्य के आंदोलन में भी कुड़मियों ने अहम भूमिका निभाई और आदिवासियों के साथ कदम से कदम मिलाकर चले.
Kudmi movement in Jharkhand : भारतीय समाज का अधिकांश हिस्सा आदिवासी (aboriginal) मूल से निकला हुआ है, भले ही बाद में उसमें आर्य तत्व घुल-मिल गए हों. उक्त बातें भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार और दार्शनिक देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने अपनी किताब Lokayata: A Study in Ancient Indian Materialism में लिखा है. देवीप्रसाद चट्टोपाध्यायय के उक्त शब्दों का उल्लेख यहां इसलिए किया गया है, क्योंकि इस आलेख में उस कुड़मी या कुरमी आंदोलन की चर्चा हो रही है, जो लगातार यह मांग कर रहे हैं कि वे आदिवासी यानी एसटी समुदाय से आते हैं, लेकिन उन्हें अत्यंत पिछड़ा वर्ग में रखा गया है. कुड़मी या कुरमी यह मांग कर रहे हैं कि उन्हें एसटी या आदिवासी ही माना जाए क्योंकि वे प्रारंभ से आदिवासी ही हैं.
क्या है कुड़मी/कुरमी का इतिहास
कुड़मी मुख्यतः एक किसान समुदाय हैं, जिनकी आबादी झारखंड, बंगाल और ओडिशा में है. ब्रिटिश भारत में कुरमियों को अनुसूचित जनजाति या आदिवासी समुदाय की सूची में रखा गया था, लेकिन आजादी के बाद इन्हें अनुसूचित जनजाति की श्रेणी से बाहर कर दिया गया. झारखंड के प्रसिद्ध बुद्धिजीवी गुंजल इकिर मुंडा बताते हैं कि यह बताना तो कठिन है कि कुड़मी झारखंड और आसपास के इलाकों में कहां से आए, क्योंकि इस बारे में कोई लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है.
हां, यह जरूर कह सकते हैं कि ये समाज वर्षों से झारखंड में आदिवासियों के साथ रहता आया है. आज के समय में कुड़मियों का जो सरनेम है महतो, वह पुराने समय में एक पद हुआ करता था. कहा जाता है कि मुंडा राजा के सहयोगी के रूप में महतो काम करता था. ब्रिटिश इंडिया में इन्हें कई जगह पर आदिवासियों के साथ सूचीबद्ध किया गया है, तो कई जगहों पर उन्हें आदिवासियों से अलग रखा गया है.
इनकी संस्कृति आदिवासियों से इसलिए मिलती है क्योंकि वे काफी लंबे समय से साथ रहते आ रहे हैं. जहां तक बात इनके अनुसूचित जनजाति से बाहर हो जाने की है, तो कहा तो यही जाता है कि कुड़मी आर्थिक रूप से मजबूत जाति है, इसलिए इन्होंने खुद को अंग्रेजों के सर्वे में खुद को आदिवासियों से अलग बताया और खुद को ऊंची जाति का बताया.
हालांकि इसके दस्तावेज मैंने नहीं देखे हैं, लेकिन यह बात मैंने कई जगह पर सुनी है और इसके बारे में चर्चाएं भी होती हैं. परिणाम यह हुआ कि आजादी के बाद कुड़मी या कुरमी जाति को एसटी कैटेगरी में नहीं रखा गया और ना इसकी सुविधा प्रदान की गई. कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि कुड़मी उस दौर की जातियां हैं, जब कई जनजाति संस्कृति के बदलाव के समय में जातियां बन गईं.
वहीं शोधकर्ता ऋषि महतो दावा करते हैं कि कुड़मी पाषाणकाल से यहां रहते आए हैं. वे कहां से आए इसके बारे में तो जानकारी नहीं है, लेकिन वे यहां हैं, इसके प्रमाण मिलते हैं. उनकी डेमोग्राफी, उनकी संस्कृति, उनके घर और गीत सभी यह बताते हैं कि कुड़मी यहां काफी पुराने समय से रहते आए हैं.
कुड़मियों को कब किया गया एसटी सूची से बाहर
कुड़मी समाज का यह दावा है कि ब्रिटिश भारत में उनकी जाति को आदिवासियों के साथ सूचीबद्ध किया गया था. आजादी के बाद उनकी जाति को इस श्रेणी से बाहर कर दिया गया. इस संबंध में शोधकर्ता ऋषि महतो बताते हैं कि कुड़मी हमेशा से आदिवासियों की श्रेणी में शामिल है. हां, यह बात जरूर है कि आजादी के बाद जब इस क्षेत्र के अनुसूचित जातियों की सूची संविधान सभा को सौंपी गई, तो उसमें कुड़मी का नाम नहीं था. यह प्रशासनिक भूल थी, इसे इस तरह प्रस्तुत करना कि यह कुड़मियों की गलती थी, सही नहीं होगा.
कुड़मी कब से कर रहे हैं आंदोलन
आजादी के बाद कुड़मी या कुरमी समाज को आदिवासियों की सूची से बाहर कर दिया. इसकी रूपरेखा तय हुई 1931 की जनगणना में जब इन्हें आदिवासियों (Aboriginal Tribe) की सूची से हटाकर दूसरी कृषक जाति के श्रेणी में डाल दिया गया. उससे पहले की जनगणनाओं में कुड़मी को आदिवासियों की (Aboriginal Tribe) श्रेणी रखा गया था. इस बारे में बात करते हुए कुड़मी समाज के प्रबुद्ध व्यक्ति राजाराम महतो कहते हैं कि कुड़मी समाज आजादी के बाद से ही अपनी वास्तविक पहचान के लिए आंदोलन कर रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि कुड़मी समाज झारखंड के आदिवासियों में से ही एक है. कुड़मी समाज के पर्व–त्योहार, उनके गीत, उनकी संस्कृति सबकुछ इस बात का प्रमाण देते हैं कि कुड़मी आदिवासी हैं. हमारी जो भाषा है, वह भी प्रकृति के करीब है, यह तमाम बातें हमें आदिवासी सिद्ध करती हैं.
आदिवासियों की तरह कुड़मियों में भी है टोटेम यानी गोत्र की परंपरा
आदिवासी समाज में पेड़, पौधे, जीव, जंतु के नाम पर गोत्र निर्धारित होता है और समान गोत्र में शादी वर्जित है. इसी परंपरा का निर्वहन कुड़मी भी करते हैं. जयराम महतो बताते हैं कि कुड़मियों में कुल 81 गोत्र हैं और इनके नाम पेड़, पोधे और जीव-जंतुओं के नाम पर ही रखे गए हैं. मसलन हिंदइआर, बनवार, नागवार, पुनोरियार, बंगसोर, संखवार, डुमरियार, बेमुआर, बगुआर, कोटिआर, करवार आदि. कुड़मियों में माता, पिता, नाना, नानी के गोत्र में शादी वर्जित है. इस तरह के नियम आदिवासियों में ही पाए जाते हैं.
आदिवासी क्यों कर रहे हैं कुड़मियों का विरोध?
आदिवासी नेताओं का कहना है कि कुड़मी समाज अपने निजी फायदे के लिए एसटी समुदाय में शामिल होना चाहता है. केंद्रीय सरना समिति, महिला मोर्चा की अध्यक्ष निशा भगत यह दावा करती हैं कि कुड़मी आदिवासी नहीं है. इनकी संस्कृति और व्यवहार कहीं से भी आदिवासियों से मेल नहीं खाते हैं. यह एक ऐसी जाति है, जो खुद को आदिवासियों से ऊपर समझती है, लेकिन आज यह आदिवासियों के साथ आना चाहते हैं, इसके पीछे वजह सिर्फ यह है कि वे सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाना चाह रहे हैं. वहीं गुंजल इकिर मुंडा का कहना है कि कुड़मी समाज को पहले यह तय कर लेना चाहिए कि वे चाहते क्या हैं? कई बार उनके बयान में विरोधाभास नजर आता है. कुड़मी समाज कई बार अपनी पहचान से ही संघर्ष करता नजर आता है, यह स्थिति बदलनी चाहिए. जहां तक बात आदिवासियों द्वारा उनके विरोध की है, तो संभवत: उन्हें यह प्रतीत होता है कि अगर कुड़मी एसटी सूची में शामिल हो गए, तो उनकी जमीन पर खतरा हो सकता है, जो आदिवासियों की सबसे बड़ी पूंजी है.
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