Durga Puja : संतान रक्षा के लिए खास है षष्ठी का दिन, जानें कोला बहू और नबा पत्रिका पूजन के बिना क्यों नहीं विराजती हैं मां दुर्गा

Durga Puja : बंगाल की दुर्गा पूजा में षष्ठी पूजन का विशेष महत्व है. इस दिन षष्ठी माता की पूजा का विधान है और माताएं अपने बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए यह पूजा करती हैं. इस दिन पारंपरिक रूप से कोला बहू यानी नबा पत्रिका की पूजा होती है. नबा पत्रिका पूजन और स्थापन के साथ ही बंगाल में सामूहिक दुर्गोत्सव यानी दुर्गा पूजा की शुरुआत होती है. मां दुर्गा की मूर्तियां पंडालों में स्थापित की जाती है और उनका दर्शन आम लोगों के लिए सुलभ हो जाता है. भक्तगण माता के आशीर्वाद के लिए पंडालों तक पहुंचते हैं.

By Rajneesh Anand | September 25, 2025 5:10 PM

Durga Puja : दुर्गा पूजा के मौके पर देवी के नौ रूपों की पूजा आश्विन मास शुक्ल पक्ष की पहली तिथि से प्रारंभ होकर नवमी तक होती है. दशमी तिथि को विसर्जन किया जाता है और माता से सुख, समृद्धि और बेहतर स्वास्थ्य की कामना की जाती है. बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, असम और त्रिपुरा जैसे राज्यों में मां दुर्गा की सार्वजनिक पूजा का विधान है, इस वजह से यहां देवी की प्रतिमा षष्ठी तिथि को सार्वजनिक पूजा पंडालों में स्थापित की जाती है और देवी की सामूहिक पूजा होती है.

सामूहिक पूजा होने की वजह से इन राज्यों में दुर्गा पूजा सिर्फ धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक उत्सव है. ब्रिटिश काल से सामूहिक दुर्गा पूजा की शुरुआत बंगाल से हुई थी. उसके बाद इसका प्रचलन अन्य पड़ोसी राज्यों तक फैला. पंडाल में देवी को स्थापित करने से पहले षष्ठी तिथि को बंगाल में विशेष पूजा होती है और कोला बहू/नबा पत्रिका को स्थापित किया जाता है.

बंगाल में क्यों इतना खास है षष्ठी पूजन

षष्ठी पूजन

बंगाल में सामूहिक दुर्गा पूजा की शुरुआत षष्ठी तिथि से होती है. इस दिन मां दुर्गा का आहवान किया जाता है और उन्हें सम्मान के साथ पूजा पंडालों में स्थापित किया जाता है. इस पूजा विधि को माता का बोधन कहा जाता है और फिर शुरू होता है दुर्गोत्सव. शिवालय ट्रस्ट कोलकाता के श्री ब्रह्मानंद (अभिजीत शास्त्री) बताते हैं कि षष्ठी तिथि को बंगाल में माता से संतान की रक्षा के लिए वरदान माना जाता है और उनकी पूजा की जाती है. दुर्गा पूजा के समय जो षष्ठी तिथि पड़ती है, उसे दुर्गा षष्ठी कहते हैं और इस दिन माताएं देवी दुर्गा के सामने अपनी संतान की रक्षा और उसके सुख-समृद्धि के लिए पूजा अर्चना करती हैं. इस वजह से यह तिथि बहुत खास है.

दुर्गा पूजा के अवसर पर षष्ठी पूजन के साथ ही दुर्गोत्सव की शुरुआत मानी जाती है. साथ ही इस तिथि को माता का बोधन किया जाता है अर्थात उन्हें जगाया जाता है. रावण वध के समय जिस प्रकार भगवान राम की स्तुति पर माता जागृत हुईं थीं और रावण के वध को संभव करवाया था, उसी तरह इस दिन माता का आह्वान कर उनसे यह कहा जाता है कि वे हमारी पूजा को स्वीकार करें, जैसे कि उन्होंने भगवान राम की पूजा स्वीकार की थी. चूंकि भगवान राम ने असमय माता का आह्वान किया था अत: इसे अकाल बोधन भी कहा जाता है. बेल के पेड़ के नीचे माता का आह्वान किया जाता है.

षष्ठी पूजन में बहुत खास है कोला बहू और नबा पत्रिका

कोला बहू और नबा पत्रिका पूजन

बंगाल में षष्ठी पूजन में कोला बहू और नबा पत्रिका का स्नान बहुत खास माना जाता है. इस परंपरा के तहत नबा पत्रिका यानी नौ पत्तों को माता के सामने रखा जाता है, इन नौ पत्तों में देवी दुर्गा के विभिन्न रूपों का वास मानकर उनकी पूजा की जाती है. मां दुर्गा की यह पूजा विधि शाक्त परंपरा की लोक परंपराओं से जुड़ी हैं. इनका वर्णन दुर्गा सप्तशती जैसे ग्रंथों में नहीं मिलता है. नबा पत्रिका पूजा परंपरा में नौ अलग-अलग पत्ते लिए जाते हैं और उन्हें केले के पेड़ के साथ बांधकर एक संयुक्त आकार दिया जाता है. कोला बहू के रूप में केले के पेड़ को गंगा में स्नान कराया जाता है और फिर उस पेड़ को पारंपरिक बंगाली साड़ी पहनाया जाता है और सिंदूर लगाया जाता है. उसे देवी के एक रूप में मानकर उसे पूजा पंडालों में स्थापित किया जाता है और फिर शुरू होता है माता का विशेष पूजन. चूंकि केले के पेड़ को पारंपरिक बंगाली महिला की तरह तैयार किया जाता है, इसलिए उसे कोला बहू का नाम दिया गया है.

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श्री ब्रह्मानंद (अभिजीत शास्त्री) बताते हैं कि इस पूजा में जो नौ पत्ते प्रयोग में लाए जाते हैं उनमें माता के विभिन्न रूपों का वास माना जाता है. जैसे केले में ब्रह्माणी, बेल के पत्ते में शिवानी, कचु में काली, मान कचु में चामुंडा, धान के पत्ते में लक्ष्मी, हल्दी के पत्ते में दुर्गा, अशोक के पत्ते में शोकरहिता, अनार के पत्ते में रक्तदंतिका और जयंती में कुमारी देवी का पूजन होता है. केले का पेड़ चूंकि इन सबमें सबसे बड़ा होता है, इसलिए उसमें सभी पत्तों का बांधा जाता है. उसके बाद उसे साड़ी पहनाकर और सिंदूर लगाकर पंडाल लाया जाता है. कोला बहू कहने के पीछे कारण यही है कि वो स्त्री रूप में होती है और उसे भगवान गणेश के पास स्थापित किया जाता है. इसी वजह से कई लोग उन्हें गणेश की पत्नी मानने की गलती करते हैं. वो सिर्फ और सिर्फ शिव की पत्नी हैं, क्योंकि वो नौ दुर्गा का रूप हैं.

क्रमांकपत्ता / वृक्षप्रतिनिधि देवीमहत्व / प्रतीक
1.केला (कदली)ब्रह्माणीस्वास्थ्य, संतति और उर्वरता
2.बेल (बिल्व पत्र)शिवानी (पार्वती)कल्याण, शिवप्रियता
3.कचु पत्ता (अरुम/कोचू)कालीशत्रु-विनाश और रक्षा
4.मान कचु (एक और अरुम जाति)चामुंडाअसुर-विनाशिनी शक्ति
5.धान (नवधान्य)लक्ष्मीअन्न, धन और समृद्धि
6.हल्दी (हरिद्रा)दुर्गापवित्रता और शक्ति
7.अशोक पत्ताशोकरहिता (शोक-नाशिनी)दुख और शोक का निवारण
8.अनार पत्तारक्तदंतिकारोग-निवारण और रक्षा
9.जयंती पत्ताकुमारी देवीयौवन, पवित्रता और विजय

कोला बहू प्रकृति पूजन का प्रतीक

कोला बहू या केले के पेड़ और अन्य पत्तों की पूजा को प्रकृति की पूजा से जोड़कर देखा जाता है. दुर्गा पूजा शरद ऋतु के आगमन के समय होता है. इस समय कई नए फूल और फसल खेतों में आते हैं. यह समय होता है प्रकृति की देवी को उनके भरपूर आशीर्वाद के लिए शुक्रिया कहने का. बंगाल में कोला बहू और नबा पत्रिका पूजन को प्रकृति के प्रति आभार जताने से जोड़कर भी देखा जाता है. इस मौके पर यह कामना की जाती है कि देवी बेहतर फसल देंगी, जिससे आम लोगों के जीवन में सुख और शांति आएगी.

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