ओबीसी पर राहुल की रणनीति के मायने, पढ़ें रशीद किदवई का लेख

Rahul Gandhi : राहुल गांधी ने यह भी स्वीकार किया कि ओबीसी को लेकर कांग्रेस की कोशिशें ‘पर्याप्त नहीं थीं’ और ऐसे में जरूरी है कि कांग्रेस और ओबीसी समुदायों के बीच रिश्तों को नये सिरे से समझा जाये.

By रशीद किदवई | August 7, 2025 6:10 AM

Rahul Gandhi : पिछले पखवाड़े एक कार्यक्रम में राहुल गांधी ने कहा कि कांग्रेस पिछले दस-पंद्रह वर्षों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की समस्याओं और चुनौतियों को समझने व सुलझाने में विफल रही है. उन्होंने यह भी माना कि इसी कारण भाजपा को ओबीसी मतदाताओं के बीच अपनी जड़ें मजबूत करने का मौका मिला. बात सिर्फ इन दस-पंद्रह वर्षों की नहीं है. कांग्रेस कई दशकों से ओबीसी समुदायों तक प्रभावी तरीके से पहुंचने में चूक करती रही है. विडंबना यह है कि ओबीसी समुदायों से जुड़े जिन नीतिगत बदलावों की शुरुआत कांग्रेस सरकारों ने की थी, उनका श्रेय भी पार्टी नहीं ले सकी.

राहुल गांधी ने यह भी स्वीकार किया कि ओबीसी को लेकर कांग्रेस की कोशिशें ‘पर्याप्त नहीं थीं’ और ऐसे में जरूरी है कि कांग्रेस और ओबीसी समुदायों के बीच रिश्तों को नये सिरे से समझा जाये. राहुल गांधी ने पार्टी सांसदों और तेलंगाना के नेतृत्व के साथ एक बैठक में कहा, ‘मैं एक व्यक्तिगत बात कहना चाहता हूं… मुझे लगता है कि ओबीसी समुदायों के मसलों को लेकर कांग्रेस पार्टी को जो समझ विकसित करनी चाहिए थी, उनके सामने आने वाली चुनौतियों और उनके समाधान के लिए जो कदम उठाने चाहिए थे, उसमें हम पीछे रह गये. मेरा मानना है कि चूंकि हम ओबीसी समुदायों की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के प्रति उतने संवेदनशील और तत्पर नहीं रहे, इसलिए उस खाली जगह पर भाजपा काबिज हो गयी.’


यह बयान न सिर्फ नयी राजनीतिक परिस्थितियों के मद्देनजर कांग्रेस के भीतर बढ़ते आत्मचिंतन का संकेत है, बल्कि इससे यह भी जाहिर होता है कि हिंदी पट्टी में भाजपा और कांग्रेस की लड़ाई असल में ओबीसी मतदाताओं का समर्थन हासिल करने की होड़ में बदल चुकी है. हिंदी पट्टी में भाजपा का प्रभाव मुख्य रूप से ओबीसी मतदाताओं, खासकर ओबीसी की भी निचली जातियों वाले समूहों के बीच अपनी मजबूत पकड़ पर टिका हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं ओबीसी समुदाय से हैं. भाजपा ने वर्षों तक बूथ स्तर पर इन समुदायों से जुड़कर जो मेहनत की, उसी का नतीजा है कि कभी बिखरा हुआ यह जातिगत समूह आज भाजपा के पीछे लामबंद नजर आता है. जहां मुस्लिम, सवर्ण और दलित समुदायों के वोट एक विचारधारा या पार्टी की ओर झुकते रहे हैं, वहीं ओबीसी के निचले समुदायों को ‘स्विंग वोटर’ माना जाता है. यही वजह है कि वे सरकार बनाने या बदलने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं. राहुल गांधी ने अब समझ लिया है कि भाजपा की ताकत को चुनौती देने के लिए ओबीसी के निचले तबकों में सेंध लगाना बेहद जरूरी है. नजदीकी मुकाबलों में यह वोट बैंक कांग्रेस की झोली में कुछ और सीटें डाल सकता है.


इसीलिए राहुल गांधी द्वारा जातिगत जनगणना की मांग और ओबीसी को अधिक प्रतिनिधित्व देने की वकालत को ‘गेम चेंजर’ माना जा सकता है. इसका असर बिहार विधानसभा चुनाव में दिख सकता है. राहुल गांधी ने अब वह झिझक भी खत्म कर दी है, जो कांग्रेस पार्टी को खुद को ओबीसी समर्थक कहने से रोकती थी. उन्होंने यह तथ्य रेखांकित करने में भी देरी नहीं की कि वर्तमान में कांग्रेस शासित सभी तीन राज्यों के मुख्यमंत्री ओबीसी समुदाय से आते हैं.


बीते कुछ वर्षों में लगभग हर राज्य में जातिगत समूहों द्वारा अधिक प्रतिनिधित्व देने की मांग तेज होती गयी है. आज का ओबीसी वर्ग केवल स्मार्टफोन से नहीं, ऐतिहासिक चेतना से भी लैस है. आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को अब राज्य दर राज्य चुनौती दी जा रही है. ऐसे में जातिगत जनसंख्या के सटीक और अद्यतन आंकड़ों की जरूरत महसूस की जा रही है. जातिगत जनगणना का विचार समय की मांग बन चुका है. बिहार ने दिखा दिया है कि यह कार्य न केवल संभव है, बल्कि अपेक्षाकृत सरल भी है. ऐसे में राहुल गांधी ने बिल्कुल सही समय पर एक सही मुद्दे को पकड़ लिया है. बिहार के आंकड़ों के सार्वजनिक होते ही देशभर के ओबीसी युवाओं को समझ में आने लगा है कि जातिगत जनगणना उनके लिए किस तरह लाभकारी हो सकती है.

राहुल गांधी भाजपा पर यह कहकर निशाना साध रहे हैं कि ओबीसी से जुड़ी उनकी चिंता सिर्फ दिखावटी है. वह यह भी इंगित कर रहे हैं कि नौकरशाही के उच्च पदों पर अब भी सवर्णों का दबदबा कायम है. उन्होंने यह भी कहा है कि महिला आरक्षण में ओबीसी महिलाओं के लिए अलग कोटा निर्धारित किया जाना चाहिए. यदि जातिगत जनगणना वैज्ञानिक और पारदर्शी ढंग से की जाये, तो न केवल सामाजिक संरचना स्पष्ट होगी, बल्कि विभिन्न जातियों की आर्थिक स्थिति का भी सटीक आकलन संभव होगा. इससे पता चलेगा कि कौन-से समुदाय सामाजिक-आर्थिक रूप से तरक्की कर चुके हैं और किन्हें अब भी सहायता की दरकार है. इससे उप-श्रेणियों के जरिये आरक्षण के विस्तार या पुनर्व्यवस्था की न्यायसंगत मांगें उठेंगी. इसका लाभ सामाजिक न्याय के साथ-साथ कांग्रेस को भी मिल सकता है और यही राहुल की रणनीति का केंद्र भी है.


बीती सदी के नब्बे के दशक में कांग्रेस भारतीय राजनीति के मंडलीकरण की प्रक्रिया में हाशिये पर चली गयी थी, किंतु आज राहुल गांधी द्वारा उठाया गया जातिगत जनगणना का प्रस्ताव उस पुरानी कमजोरी को एक नयी ताकत में बदल सकता है. भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को जहां पारंपरिक मतदाताओं के बीच अपनी पकड़ फिर से मजबूत करने में मदद मिली, वहीं जातिगत जनगणना का मुद्दा उसे नये मतदाताओं से जोड़ सकता है. बिहार में यदि इसी मुद्दे पर भाजपा-जदयू के वोट बैंक से दो-तीन फीसदी वोट भी राजद-कांग्रेस खेमे की ओर खिसकते हैं, तो हिंदी पट्टी की एकतरफा राजनीति काफी हद तक संतुलित हो सकती है.


राहुल गांधी की रणनीति केवल भाजपा से मुकाबले तक सीमित नहीं है. इससे वे उन क्षेत्रीय दलों के लिए भी चुनौती खड़ी कर सकते हैं, जो अब तक अपने-अपने वोट बैंक को लेकर आश्वस्त रहे हैं. जातिगत जनगणना और ओबीसी प्रतिनिधित्व की मांग को बार-बार उठाकर राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय वोट शेयर को बढ़ाने की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं, जो 2014 से 2024 तक लगभग 19-20 फीसदी पर स्थिर बना हुआ है. आज के युवाओं की सबसे बड़ी चिंता बेरोजगारी है. ऐसे में यदि ओबीसी युवाओं को लगे कि उन्हें शासन-प्रशासन में अधिक प्रतिनिधित्व मिल रहा है, तो वे कांग्रेस में एक नयी संभावना देख सकते हैं. इससे कांग्रेस पहली बार वोट देने वाले उन युवाओं को भी आकर्षित कर सकती है, जो मोदी के करिश्मे से प्रभावित हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)