Supreme Court : संविधान पीठ के फैसले का दूरगामी असर
Constitution Bench : संविधान पीठ में शामिल दूसरे जज सूर्यकांत अब चीफ जस्टिस बन गये हैं. संविधान पीठ में शामिल दो अन्य जज विक्रमनाथ और पीएस नरसिम्हा भावी चीफ जस्टिस हैं. इसलिए इस फैसले का दूरगामी प्रभाव पड़ेगा.
Supreme Court : विधानसभा से पारित विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए तीन महीने की समयसीमा निर्धारित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने अप्रैल में फैसला दिया था. उस फैसले के खिलाफ पुर्नविचार याचिका दायर करने की बजाय केंद्र सरकार ने अनुच्छेद-143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों पर न्यायिक राय मांगी थी. दो तरह के मामलों में राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से राय मांगने का अधिकार है.
पहला- किसी कानूनी विवाद या तथ्यात्मक सवाल या फिर नये कानून बनाने से पहले उसकी संवैधानिक वैधता पर राय. और दूसरा- संविधान लागू होने के पहले संधि, समझौता या दस्तावेज से जुड़ा विवाद. इससे पहले 15 अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी गयी थी. उनमें से राम मंदिर और कावेरी जल विवाद के दो मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने राय देने से इनकार कर दिया था. अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज मामले में 1974 में सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की संविधान पीठ ने कहा था कि अनुच्छेद 143 के तहत दी गयी राय सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक फैसलों की तरह बाध्यकारी नहीं है. इस कारण संविधान पीठ के पांच जजों के फैसले के बावजूद तमिलनाडु मामले में दो जजों का अप्रैल में दिया गया न्यायिक फैसला अब भी प्रभावी है.
जस्टिस बीआर गवई ने रिटायरमेंट के पहले यह फैसला दिया.
संविधान पीठ में शामिल दूसरे जज सूर्यकांत अब चीफ जस्टिस बन गये हैं. संविधान पीठ में शामिल दो अन्य जज विक्रमनाथ और पीएस नरसिम्हा भावी चीफ जस्टिस हैं. इसलिए इस फैसले का दूरगामी प्रभाव पड़ेगा. दो जजों ने न्यायिक फैसले में तीन महीने की समयसीमा का निर्धारण करके तमिलनाडु विधानसभा से पारित 10 विधेयकों को राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी के बगैर ही कानून के तौर पर मान्य स्वीकृति दी थी. फैसले के बाद राजपत्र में अधिसूचित होने से सभी 10 विधेयक कानून बन गये हैं. लेकिन झारखंड और कनार्टक जैसे विपक्ष शासित कई राज्यों में लंबित विधेयकों पर कई वर्षों से विवाद और मुकदमेबाजी चल रही है.
उन सभी विधेयकों के भविष्य का निर्धारण संविधान पीठ के नये फैसले के अनुसार हो सकता है. इस फैसले में पांच बड़ी बातें शामिल हैं. पहला, विधानसभा से पारित विधेयकों को राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी के बगैर जजों के आदेश से स्वतः मंजूर करना संविधान में किये गये शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है. दूसरा, अनुच्छेद-142 के तहत संपूर्ण न्याय देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जजों को असाधारण शक्तियां मिली हैं. लेकिन विधेयकों को स्वतः मंजूरी देकर शक्ति के बेजा इस्तेमाल से राज्यपालों के कामकाज में अतिक्रमण नहीं किया जा सकता. तीसरा, राज्यपाल को अनिश्चित काल तक विधेयकों को मंजूरी देने से रोकने की शक्ति देना संघवाद के सिद्धांत के खिलाफ होगा. लेकिन संविधान के अनुच्छेद-200 में उल्लेखित यथाशीघ्र के भाव को जजों की व्याख्या से समयसीमा निर्धारित करने की कानूनी बाध्यता में नहीं बदला जा सकता है.
इस बारे में संविधान में जरूरी बदलाव करने के लिए सिर्फ संसद को ही विधायी शक्ति हासिल है. लेकिन राज्यपाल लंबे समय तक विधेयकों को मंजूरी देने में विलंब करें, तो राज्य सरकारें सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटा सकती हैं. चौथा, ऐसे मामलों में राष्ट्रपति या राज्यपाल की कार्रवाई न्यायिक परीक्षण के दायरे में नहीं आती है. न्यायिक समीक्षा तभी की जा सकती है, जब राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद विधेयक को कानून की शक्ल मिल जाये. पांचवां, अनुच्छेद-200 के तहत विधानसभा से पारित विधेयकों के मामलों में राज्यपाल के पास तीन विकल्प हैं. विधेयक को मंजूरी देना, राष्ट्रपति के पास भेजना या आपत्तियों के साथ विधानसभा को पुर्नविचार के लिए वापस भेज देना. लेकिन धन-विधेयक को विधानसभा के पास वापस नहीं भेजा जा सकता है. धन-विधेयक के मामलों में राज्यपाल को मंजूरी देने या राष्ट्रपति के पास भेजने के ही दो विकल्प हासिल हैं.
इसके बाद दो जजों के पुराने फैसले में बदलाव के लिए पुर्नविचार याचिका से संविधान पीठ की बड़ी बेंच में सुनवाई की मांग हो सकती है. फैसले से केंद्र-राज्य संबंध, संघीय व्यवस्था, राज्यपालों के अधिकार, राज्यों में चुनी हुई सरकार और मनोनीत राज्यपालों के अधिकारों में विरोधाभास, न्यायिक पुनवरालोकन और सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा अनुच्छेद-142 के बेजा इस्तेमाल से जुड़े मुद्दों पर बहस आगे बढ़ सकती है. जनता द्वारा निर्वाचित विधानसभा से पारित विधेयकों को राज्यपालों द्वारा लंबे समय तक लंबित रखना संवैधानिक नैतिकता के खिलाफ है. दो जजों के फैसले से साफ था कि विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपाल बाधा डालने वाली मशीनरी के तौर पर काम कर रहे हैं.
सरकारिया आयोग ने 1987 में राज्यपालों और राज्यों की निर्वाचित सरकार के बीच संघर्ष को रोकने के लिए अनेक सुझाव दिये थे. तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि ने केंद्र-राज्य संबंधों पर सुधार के लिए कमेटी बनायी थी. उसी तर्ज पर स्टालिन सरकार ने अप्रैल, 2025 में पूर्व जज जोसेफ कुरियन की अध्यक्षता में कमेटी के गठन का एलान किया था. लंबित मामलों में जजों के समयबद्ध तरीके से फैसला देने के लिए नियमावली है. विधायकों की अयोग्यता मामलों में स्पीकरों के निर्णय लेने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट ने कई बार समयसीमा निर्धारित की है. इसलिए राज्यपालों को अदालती विवाद से बचाने के लिए संसद से अनुच्छेद-200 और 201 में बदलाव करके उचित समयसीमा का निर्धारण होना चाहिए. लेकिन राज्यपालों की गलती को ठीक करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से विधेयकों को गलत तरीके से स्वतः मंजूरी देना पूरी तरह से गलत है. इसलिए विधि द्वारा शासित संवैधानिक व्यवस्था में एक गलत को दूसरे गलत से ठीक करने का प्रयास पूरी तरह से अस्वीकार्य है.
पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अनुच्छेद-142 के दुरुपयोग को परमाणु मिसाइल की तरह खतरनाक बताया था. उनके अनुसार, जज सुपर संसद की तरह काम कर रहे हैं, जो संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है. दो जजों के फैसले में कई अन्य देशों के कानूनों के अनुसार भारतीय संविधान के प्रावधानों की व्याख्या के अनुसार फैसला दिया गया था. संविधान पीठ के अनुसार भारत का संविधान अंग्रेजों के समय बनाये गये 1935 के अधिनियम से प्रेरित है. लेकिन विवादों के निपटारे के लिए विदेशी कानूनों की बजाय भारतीय संविधान के लिखित प्रावधानों को वरीयता दी जानी चाहिए. न्यायशास्त्र में स्वदेशी के भाव को संविधान पीठ की मान्यता इस फैसले का सबसे बड़ा कारण है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
