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फिर दहला यूरोप
दो माह के अंतराल में ब्रिटेन दूसरी बार आतंकी हमले की चपेट में आया है. मार्च में ब्रिटिश संसद परिसर को निशाना बनाया गया था, तो इस बार मैनचेस्टर के एक संगीत समारोह में खूनी खेल खेला गया है. दोनों में हद दर्जे का मेल है. ब्रिटिश संसद पर हमला किसी एक व्यक्ति की करतूत […]
दो माह के अंतराल में ब्रिटेन दूसरी बार आतंकी हमले की चपेट में आया है. मार्च में ब्रिटिश संसद परिसर को निशाना बनाया गया था, तो इस बार मैनचेस्टर के एक संगीत समारोह में खूनी खेल खेला गया है. दोनों में हद दर्जे का मेल है. ब्रिटिश संसद पर हमला किसी एक व्यक्ति की करतूत थी.
लोगों में दहशत पैदा करने के ख्याल से खालिद मसूद नामक शख्स ने किराये की कार बेलगाम चला कर लोगों को कुचला और ब्रिटिश संसद परिसर तक घुस आया. मैनचेस्टर के संगीत समारोह में भी अपने देह पर बंधे बम के विस्फोट से एक झटके में 22 लोगों की जान लेनेवाला आत्मघाती हत्यारा अकेला व्यक्ति है. दोनों घटनाओं में हमलावरों ने वारदात के लिए प्रतीकात्मक महत्व की जगहें चुनीं.
ब्रिटिश संसद उदारवादी लोकतंत्र की एक तरह से शक्तिपीठ है और नगर मैनचेस्टर का वह संगीत समारोह व्यक्ति की अभिव्यक्ति और आजादी को साकार करता मंच था. यहां एक अमेरिकी गायिका का कार्यक्रम था. मतलब, यह कार्यक्रम उदारवादी लोकतंत्र को सर्वोच्च मूल्य मानने वाली दो राष्ट्रीयताओं के साझेपन का एक उत्सव था. आतंकी मंसूबे वाले यह नहीं देखते कि उनके हमले से कितने लोग मरते या घायल होते हैं. वे लोगों के दुश्मन ही नहीं होते, लोगों के मन-मानस को बनाने वाली व्यवस्थाओं के दुश्मन भी होते हैं.
ब्रिटेन की संसद या संगीत समारोह पर हमला दरअसल उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला है. इसकी व्याख्या में अक्सर दो बातें कही जाती हैं. एक तो यह कि उदारवादी लोकतंत्र अपने विस्तार के क्रम में इतना उदार नहीं हो पाया है कि दुनिया के हरेक व्यक्ति को आजादी के तराजू पर बराबर का सम्मान दे सके. मतलब, उदारवाद के हाथों सौतेलेपन का शिकार हुए लोग आतंकवाद की राह पकड़कर अपने गुस्से का इजहार करते हैं.
दूसरी बात यह कि आतंकवाद का कोई चेहरा नहीं होता. आतंकी गिरोह घृणा की विचारधारा के नाम हैं और अगर व्यवस्था के प्रति मन में नफरत मौजूद हो तो मानव-मात्र से घृणा की सीख देने वाली विचारधारा किसी के लिए मुखौटा के काम कर सकती है. इसका नाम कुछ भी हो सकता है. हालिया इतिहास कहता है कि आतंकी हमला कहीं भी और कभी भी हो सकता है.
इस सच्चाई को भारत सहित यूरोप, अमेरिका और एशिया के कई मुल्कों ने बार-बार भुगता है. भारत ने इसी कारण आतंकवाद के विरुद्ध साझे की लड़ाई की बात हमेशा उठायी है. मुल्कों की विश्व-बिरादरी और नागरिक समुदाय की सतर्क और साझी पहल के जरिये ही आतंकवाद पर लगाम कसी जा सकती है.
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