।। राहुल सिंह।।
(पंचायतनामा, रांची)
लोकसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच इन दिनों देश में डीएनए बदलने का दौर चल रहा है. राजनीतिक अस्तित्व की रक्षा के लिए हमारे राजनेता या तो रातों-रात या फिर अपनी गोटी सेट कर अपना डीएनए बदल रहे हैं. वैज्ञानिक शब्द का यह संक्षिप्त रूप आज इतना चर्चित व जाना-पहचाना हो चुका है कि अशिक्षित या कम पढ़े-लिखे लोग भी इसके महत्व को भली-भांति समझने लगे हैं.
इस शब्द को यह पहचान व लोकप्रियता देने में एक जमाने में देश के दिग्गज नेता रहे तिवारी जी का बड़ा योगदान है. हाल में इस शब्द को राजनीतिक प्रासंगिकता पिछले दिनों उस समय मिली जब समाजवादी धड़े के कुछ विधायकों ने एक दूसरे समाजवादी विचारधारा वाले राजनीतिक दल में प्रवेश कर लिया. इस आगमन का स्वागत करते हुए कहा गया कि दोनों राजनीतिक दलों का डीएनए एक है, ऐसे में यह स्वाभाविक है और इसमें कोई आश्चर्य नहीं.
यह बात तो समझ में आती है. लेकिन इस नये राजनीतिक दौर में लोग समाजवादी से हिंदू राष्ट्रवादी व कांग्रेसी रातों-रात बन जा रहे हैं. या फिर, कांग्रेसी से हिंदुत्ववादी व समाजवादी हो जा रहे हैं. हिंदू राष्ट्रवादी से कांग्रेसी या फिर समाजवादी हो जा रहे हैं. संकीर्ण क्षेत्रीयता की राजनीति करने वाले राष्ट्रवाद व राष्ट्रवाद का राग अलापने वाले क्षेत्र व विभाजन की राजनीति से भी ऐतराज नहीं करते. यह तो स्वाभाविक रूप से डीएनए बदलने का ही मामला है. इस चुनावी मौसम में डीएनए ऐसे लोग भी बदल रहे हैं जो अपने जीवन के सातवें दशक में हैं.
डीएनए बदलना भी बड़े कौशल का काम है. लोग यह तय कर ले रहे हैं कि क्या आप मुङो फलां सीट से टिकट देंगे? अगर नहीं तो फिर आपका राजनीतिक डीएनए अपने राजनीतिक खून में नहीं डालना है. एक जमाने में उत्तरप्रदेश के दिग्गज नेता रहे एक शख्स ने इतनी बार अपना राजनीतिक डीएनए बदला कि पिछली दफा फिर हिंदुत्ववादी डीएनए अपने राजनीतिक खून में डलवाते हुए रुआंसे हो पड़े और कहा अब तो भगवा झंडे में लिपट कर ही अंतिम विदाई चाहता हूं. अभी अलग-अलग पार्टियों के टिकटों की पहली-दूसरी फेहरिस्त ही आयी हैं.
हमारे राजनेता मीडिया व विभिन्न मंचों के माध्यम से यह संदेश दे रहे हैं कि मुङो चुनाव के लिए फलां सीट चाहिए. नहीं तो मैं भी अपना राजनीतिक डीएनए बदल लूंगा. सत्ता के लिए लड़ी जा रही इस चुनावी जंग में राजनीतिक पार्टियों के आका हैरान-परेशान हैं कि वे अपने लोगों को डीएनए बदलने से रोकें, तो रोकें कैसे? इस मर्ज से हर पार्टी परेशान है. राजनीतिक दल के सिपाही तो सिपाही, कई राजनीतिक दलों के सेनापतियों ने भी अपना डीएनए बदल लिया है. याद करें, एक वह भी दौर था जब लोग राजनीतिक रूप से हाशिये पर चल जाते थे, लेकिन अपना वैचारिक व राजनीतिक डीएनए कभी नहीं बदलते. और एक यह भी दौर है!