।। डॉ महेश परिमल।।
महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के खंडाला गांव के लोगों ने अपने टीवी सेट फूंक दिये. गांव के 30 से अधिक घरों के लोगों ने टीवी सेट जलाने का फैसला सिर्फ इसलिए किया क्योंकि उनका मानना था कि इससे ईलता फैल रही है. गांव के लोगों का कहना है कि टीआरपी बढ़ाने के नाम पर टीवी धारावाहिकों और विज्ञापनों में ईल दृश्य दिखाये जा रहे हैं. इन परिवार के साथ बैठ कर टीवी देखना मुश्किल ही हो गया था. बच्चे सबसे अधिक प्रभावित हो रहे थे.
गांव के नासिर खान का कहना है कि इन दिनों आइपीएल क्रिकेट मैचों के दौरान बेहद कम कपड़ों में चीयर लीडर्स खूब दिखीं. आखिरकार गांव के बुजुर्गो टीवी सेट जलाने का फैसला किया. हालांकि शुरू में घर की महिलाओं और बच्चों ने इसका विरोध किया. लेकिन समझाने पर सब राजी हो गये. जब लोगों से पूछा गया कि जलाने के बजाय टीवी सेट बेच क्यों नहीं दिया, तो जवाब आया कि टीवी जिस घर जायेगा नुकसान ही करेगा. यह तो एक बानगी है. जिस टीवी को ज्ञानवर्धक बताया जाता रहा है. आज वही सिरदर्द बन गया है. आज देश में जिस तरह से मासूमों से दुष्कर्म हो रहा है, उसके पीछे कहीं न कहीं ये टीवी भी जिम्मेदार है, जो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए ईल दृश्यों का सहारा ले रहा है. देश में पुरुषों को अचानक ही दुष्कर्म करने की बीमारी कैसे हो गयी? यह जानना है तो पिछले कुछ महीनों में टीवी पर होनेवालों प्रसारणों पर नजर डाल ली जाये. तो शायद जवाब मिल जायेगा. नाबालिग कन्याओं पर आये इस संकट पर प्रसार माध्यमों ने आग में घी डालने का काम किया है.
पिछले कुछ महीनों से मासूम बच्चियों से दुष्कर्म की खबरों से अखबार रंगे पड़े मिल रहे हैं. टीवी वालों को मानो मसाला मिल गया है. समाज की इस सच्चई को दिखाने में वे अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं. उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि टीवी देखने वालों में बच्चे और किशोर वय के लोग भी होते हैं. पिछले कुछ दिनों में मासूमों से दुष्कर्म की कई घटनाएं एक साथ कई अलग-अलग शहरों में हुईं. सभी स्थानों पर पुलिस निष्क्रियता की बातें सामने आयीं. पर, कोई पुलिस की विवशता को समझने को तैयार ही नहीं है. आखिर एक प्रयास इस दिशा में क्यों नहीं किया जाता कि पुलिस विभाग को नेताओं की चाकरी (सुरक्षा) से अलग कर दिया जाये. उन्हें साफ-साफ निर्देश दिये जायें वे किसी भी छुटभैये नेता की बात नहीं सुनें. जो कानून कहता है वही करें. फिर देखो, पुलिस की ताकत. लेकिन ऐसा इस देश में हो ही नहीं सकता. पुलिस को दोष देना आसान है. पर, उसकी जगह काम करना काफी दुरूह है. आजादी मिले 66 साल गुजर गये, पर आज तक न तो पुलिस के कानून को सुधारा गया और न ही पुलिस मोहकमे को. कोई भी केंद्र या राज्य सरकार पुलिस को सुधारना भी नहीं चाहती. पुलिस के बहाने नेता अंगरेजों की तरह अपना दमन चक्र चलाते रहना चाहते हैं.
रही बात उन पुरुषों की ,जो यह मानते हैं कि मासूमों के साथ सहवास करने से गुप्त रोग खत्म हो जाते हैं. इस विकृत विचारधारा के साथ जीने वाले कई पुरुष ऐसे भी हैं, जिसे मासूम का चीखना-चिल्लाना अच्छा लगता है. ऐसी मानसिकता वाले पुरुष हर समाज में हैं. अधिकांश मामलों में यही सामने आया है कि ऐसे पुरुषों को प्रताड़ित मासूम जानती थी. जो घर में आता-जाता रहता था. वह कुछ गलत करता, तो मासूम के माता-पिता अनसुना कर देते या विश्वास ही नहीं करते. आज बच्चियां घर पर ही सुरक्षित नहीं हैं. बाहर की बात तो छोड़ दो. घर पर रहने वाले दानवों की खोज हमें पहले करनी होगी. इसके लिए सबसे पहले पालकों को अपनी संतानों पर विश्वास करना सीखना होगा. विश्वास से ही विश्वास उपजता है, यदि पालक संतानों पर विश्वास करेंगे, तो संतानें भी अपने सुख-दुख पर पालकों से चर्चा करेंगे. पालकों को भी यह सोचना होगा कि संतानें पैदा की हैं, तो उन्हें समय भी देना होगा. संतान के लिए यदि समय नहीं है, तो संतानों के बिगड़ने का दोष किसी अन्य को नहीं दिया जा सकता. पालक इस दिशा में ध्यान दें कि मासूमों को बहलाना बहुत ही आसान है. चॉकलेट, बिस्किट्स आदि से मासूम बहल जाते हैं. उन्हें पता ही नहीं होता कि इन चीजों को उन्हें देने वाला क्या नीयत रखता है.
प्रसार माध्यमों से बच्चों को यह भी नसीहत दी जाये कि उनके शरीर पर किया गया स्पर्श किस तरह का है. ऐसा एक प्रयास आमिर खान ने अपने धारावाहिक में किया था. इसी धारावाहिक में उन्होंने इस तरह के कर्द मुद्दों पर चर्चा की थी, जिस पर सरकार अब तक खामोश है.
अब रह जाती है बात पुलिस की सक्रियता की. आज व्यवस्था इतनी अधिक खराब है कि बिना कुछ लिए दिये पुलिस का शरीर भी नहीं हिलता. एफआइआर लिखने की बात ही छोड़ दो. पुलिस को वही कुछ देगा, जो गलत होगा. उसे अपना अपराध छिपाना होगा, इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार हो जाता है. स्वाभाविक है, जिससे पुलिस कुछ लेगी, उसके प्रति तो ईमानदार ही रहेगी. जो प्रताड़ित है, वह कहां से कुछ दे पायेगा. उसे तो पुलिस थाने तक पहुंचने में ही न जाने कितने पापड़ बेलने पड़े होंगे. उसे तो जो थाने तक लेकर आता है, वही कुछ लेकर ही सौदा करता है. पुलिस ईमानदार है, जहां उसका स्वार्थ जुड़ा है. उसकी सारी ऊर्जा तो नेताओं की जी-हुजूरी में ही निकल जाती है. जो बचती है, उसे अपराधियों को बचाने में लगा देती है. अब आम आदमी के लिए कितनी ऊर्जा बची? नेताओं को जब भी अपना दमन चक्र चलाना होता है या अपने दुश्मन को निबटाना होता है, वह पुलिस का ही सहारा लेती है. इस तरह से कानून के रक्षक को कानून का भक्षक बनाने में देर नहीं लगती. कानून के रखवालों से ही करवाया जाता है कानून के खिलाफ काम. आखिर पुलिस क्यों न करे, पुलिस की वर्दी दिलवाने में इन्हीं नेताओं का ही तो हाथ रहा है. अपने आकाओं से कैसी बेईमानी?
अपराधियों को कानून का खौफ बिल्कुल नहीं है क्योंकि आज तक देश में किसी बलात्कारी को फांसी की सजा हुई हो, या कठोर दंड दिया गया हो, ऐसा सुनने में नहीं आया. देश की धीमी न्याय प्रणाली से सभी अपराधी अच्छी तरह से वाकिफ हैं. न्याय पाने की लंबी प्रक्रिया के दौरान बहुत कुछ किया जा सकता है. बहुत कुछ हो भी रहा है. गवाहों को प्रभावित करना अब बड़ी बात नहीं है. आज के वकील भी इतने शातिर हो गये हैं कि बलात्कारी को बचाने में अपना पूरा श्रम लगा देते हैं क्योंकि मोटी राशि बलात्कारी से ही मिलेगी. प्रताड़ित महिला या मासूम इतनी मोटी रकम नहीं दे सकती. तय है पुलिस वाले कुछ लेकर मामला ही ऐसा बनाते हैं कि वकील को मुकदमा लड़ने में आसानी रहे. वह भी कुछ ऐसे दांव-पेंच लगाते हैं कि आरोपी बाइज्जत छूट जाता है. कई बार तो वकील ही अपराधी को लेकर थाने आते हैं और वकील के बताये अनुसार अपनी रिपोर्ट लिखवाते हैं. इसमें धरती के भगवान यानी चिकित्सक की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है. उसकी जांच ऐसे होती है कि मानवता भी शरमा जाये. उसकी जांच में संवेदना नामक कोई चीज नहीं होती.
हर इनसान के भीतर एक हैवान छिपा होता है. एकांत, अंधकार, अनुकूल और प्रगाढ़ परिचय जैसे संयोगों में यह हैवान जाग्रत हो जाता है.
पुरुष के भीतर वासनायें ऐसे आग की तरह हैं, जिसे हमारे प्रचार माध्यम उत्पेरक का काम करते हैं. इसी आग में इन दिनों देश की मासूम जल रही हैं. प्रसार माध्यमों में सेक्स के दृश्यों पर प्रतिबंध लगाने की दिशा में कुछ नहीं किया जा रहा है. यदि टीवी पर ईल दृश्यों को दिखाया जाना बंद कर दिया जाये, तो इस तरह की घटनाओं पर अंकुश रखा जा सकता है. यदि किसी ने इस तरह का अपराध किया है, तो उसे दंड देने में विलंब नहीं होना चाहिए. दंड देने के पहले आरोपी की उम्र मत देखो, उसकी क्रूरता को ही दंड का पैमाना माना जाना चाहिए. आज की न्याय व्यवस्था ऐसी है कि सज्जन को दंड मिलने में देर नहीं की जाती, बल्कि दुष्टों को बचाने का पूरा मौका दिया जा रहा है. यदि दिसंबर में दिल्ली में हुए गैंगरेप के आरोपी को जल्द से जल्द सजा मिल गयी होती, तो आज अपराधी उस तरह का अपराध करने से पहले कुछ सोचते. आज अपराधियों को अंजाम का डर नहीं है. उन्हें मालूम है कि धन के जूते से किसी को भी मारा जाये, वह उफ नहीं करेगा. दशक बीत जाते हैं, अपराधों के खिलाफ आरोप ही तय नहीं हो पाते. यह है हमारी न्याय व्यवस्था. इस न्याय व्यवस्था में आज आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है.
अंत में ऐसी घटनाओं के बाद आक्रोश से उबलते लोगों से यही सवाल है कि पुलिस थानों और नेताओं के घरों के सामने प्रदर्शन करने से बेहतर है कि टीवी चैनलों के कार्यालयों, फिल्मी स्टूडियों पर हमला बोलें. बुराइयों को बढ़ाने वाला स्त्रोत वही हैं. फिल्मों में आइटम गर्ल का इस्तेमाल क्या मनोरंजन करने के लिए किया जा रहा है. निश्चित रूप से शरीर के भीतर छिपी काम-वासनाओं को उभारने के लिए किया जाता है. ऐसी फिल्मों को देखने के बाद दर्शक क्या अच्छा सोच पायेंगे? जब पालक अपनी संतानों को अपने शरीर के अंगों को छिपाने की सलाह देते हैं, तो वही पालक प्रसार माध्यमों में अपने बच्चों के सामने तन उघाड़ू दृश्य देखने में संकोच क्यों नहीं करते. आज अधिकांश विज्ञापनों में नारी शरीर का ही इस्तेमाल खुले आम हो रहा है. इस पर रोक क्यों नहीं लगायी जा सकती. इन दृश्यों से यही संदेश जाता है कि नारी शरीर तो प्रदर्शन की चीज है. नारी की यह मानसिकता और पुरुष की लोलुपता के कारण ही आज गैंगरेप की घटनाओं में वृद्धि कर रही है. आज न तो पुलिस अपना काम ईमानदारी से कर रही है. न डॉक्टर अपनी भूमिका सही तरीके से निभा रहे हैं, न ही वकील दोषियों को सजा दिलवाने में कामयाब हो पा रहे हैं. न ही अदालत ही ऐसे कठोर दंड दे पा रही है, जिससे अपराध करने के पहले अपराधी खौफजदा हो जाये. (साभार: हम समवेत)