चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज
अस्सी बरस कम नहीं होते कोई बात भुलाने को, लेकिन शास्त्रीय संगीत के रसिकों से पूछिये कि क्या वे पीसी बरुआ के निर्देशन में बनी फिल्म देवदास (1936) में कुंदनलाल सहगल का गाया गीत- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन…’ को भुला पाये हैं? नहीं. जैसे गहरे स्वर के आघात से बांसुरी के रग-रेशे थरथराते हैं, निविड़ निस्संगता के क्षणों में सुनने पर सहगल की करुण आवाज में यह गीत कुछ वैसे ही हृदय को कंपकंपाहट से भर देता है.
फिल्म में सहगल के गाये दो गीत और हैं- ‘बलम आय बसो मोरे मन में’ और ‘दुख के दिन बीतत नाहीं’ लेकिन इतिहास बनाया ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन’ ने. यह राग झिंझोटी की ठुमरी है.
सहगल ने फिल्म में इसका स्थायी और अंतरा गाया है, लगभग दो मिनट के अंतराल में, लेकिन स्वर का निभाव ऐसा कि इसके बोल बड़ौदा-राज के गायक उस्ताद अब्दुल करीम खां साहब ने सुने, तो उनसे रहा नहीं गया. ठुमरी के निभाव से निहाल खां साहब ने तारीफ में सहगल को बधाई-संदेश भेजा था. यह गीत देवदास फिल्म के तकरीबन दस साल पहले 1925-26 में करीम खां साहब के स्वरों में शास्त्रीय संगीत के रसिकों के बीच काफी लोकप्रियता बटोर चुका था. जिस ठुमरी का शृंगार गुरुपद पर आसीन अब्दुल करीम खां साहब के कंठ से हुआ हो, उसी को किसी फिल्मी गायक के कंठ से सुन कर भाव-विभोर होना और बधाई संदेश भेजना- जमाने के चलन के हिसाब से जब फिल्मी संगीत को ओछा समझा जाता हो- आश्चर्यजनक तो कहलायेगा ही.
उस्ताद अब्दुल करीम खां के बधाई-संदेश की याद नहीं आती, अगर मीडिया में यह किस्सा जोर ना पकड़ता कि पश्चिमी यूपी के मुसलिम-बहुल कस्बे कैराना से अल्पसंख्यक हिंदू आबादी भयभीत हो पलायन को मजबूर हैं. 1873 में जन्मे और बीसवीं सदी के प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीत गायकों में शुमार उस्ताद अब्दुल करीम खां इसी कैराना कस्बे के थे और उनकी जीवन-कथा कैराना के बारे में फैलाये जा रहे सांप्रदायिक जहर की काट है, बशर्ते याद रहे. शास्त्रीय संगीत की विरासत के लोप की एक मिसाल यह भी है कि खां साहब के बारे में ज्यादा सूचनाएं इंटरनेट खंगालने पर भी नहीं मिलतीं. आॅस्ट्रेलिया के एक संगीत रसिक माइकेल किन्नियर ने खां साहब के जीवन और संगीत-यात्रा के बारे में किताब लिखी है.
किताब के मुताबिक, शास्त्रीय संगीत के जिन गायकों ने ग्रामोफोन की बंदिशों के भीतर रहते हुए अपनी गायकी पहले-पहल रिकाॅर्ड करवाना जायज समझा, करीम खां साहब उनमें एक थे. देश में मौजूद संगीत की साझी विरासत से लगाव इतना था कि ना तो ग्वालियर घराने की गायकी से कुछ लेकर अपने किराना घराने की सुरलहरियों को सजाने में संकोच किया और ना ही कोसों दूर पड़नेवाले कर्नाटक-संगीत को सीखने-अपनाने से ही कोई परहेज.
उदारता ऐसी थी कि कैराना से निकल कर जहां तक बन सका पूरे देश को अपना बनाया. मैसूर रियासत से संगीत-रत्न की उपाधि पायी, तो कर्नाटक-संगीत सीख कर पूरे दक्षिण भारत में गायन के लिए ससम्मान बुलाये गये. मिराज, पुणे, बेलगाम, मुंबई में संगीत विद्यालय खोले, तो संगीत सिखाने के मामले में जाति-धर्म, कुल-गोत्र से जुड़े किसी विधि-निषेध का पालन नहीं किया. सवाई गंधर्व (इनके एक शिष्य थे भीमसेन जोशी) और केसरबाई केरकर जैसे शिष्य इसी बात की नजीर हैं. खां साहब का निजी जीवन भी उनकी उदारता का साक्ष्य है. शादी बड़ौदा के राजपरिवार की कन्या ताराबाई माने से हुई और ताराबाई माने शादी के बाद भी अपने पितृ-परिवार के धर्म के हिसाब से रोजमर्रा का जीवन जीती रहीं.
किराना घराने की गायकी से जुड़ी इनकी पांच संतानों के नाम से यह जानना मुश्किल है कि वे हिंदू हैं या मुसलमान. ज्येष्ठ पुत्र अब्दुल रहमान सुरेशबाबू माने कहलाते हैं, तो कनिष्ठ पुत्र अब्दुल हमीद कृष्णराव माने. एक बेटी सकीना सरस्वती माने के नाम से मशहूर हैं, तो दूसरी बेटी चंपाकली हीराबाई बड़ोदकर के नाम से.
जाॅर्ज ऑरवेल के नाइनटीन एट्टीफोर में आता है कि, ‘जिनका अतीत पर नियंत्रण है, वे भविष्य पर कब्जा करते हैं और जिनका वर्तमान पर नियंत्रण है, वे अतीत पर कब्जा जमाते हैं.’ कैराना में यही हो रहा है.
कैराना के वर्तमान पर कब्जा जमानेवाली राजनीतिक जमात कैराना के सांस्कृतिक अतीत को हमारी-आपकी स्मृति से मिटा डालना चाहती है. स्मृति का लोप दरअसल अस्मिता का लोप है, उस अस्मिता का, जिसे नीर-क्षीर विवेकी समाज ने मूल्यवान मान कर अतीत से चुन-छांट कर संजोया है. साझेदारी के धागे से बुनी इस अस्मिता को सहेजना कभी की तरह आज भी देश सहेजने के बराबर है.