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दिल्ली से केरल : निर्भय नहीं स्त्री
सुजाता युवा कवि एवं लेखिका किसी बलात्कार के समाचार पर प्रतिक्रिया करने और उसे समझने के लिए हम दस रास्तों पर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं. कोई कह सकता है कि यह सिर्फ एक और बलात्कार है, कितना कुछ रोज हो रहा है, संवेदनाएं काठ हो गयी हैं, हिंदी फिल्मों को खूब गरियाया जा […]
सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
किसी बलात्कार के समाचार पर प्रतिक्रिया करने और उसे समझने के लिए हम दस रास्तों पर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं. कोई कह सकता है कि यह सिर्फ एक और बलात्कार है, कितना कुछ रोज हो रहा है, संवेदनाएं काठ हो गयी हैं, हिंदी फिल्मों को खूब गरियाया जा सकता है.
कहा जा सकता है पीड़िता को नियंत्रण में रहना था. उसके कपड़े चाल-चलन वगैरह पर टिप्पणी की जा सकती है. कोई इसे शर्मिंदगी का कृत्य मानते हुए आह भरेगा कि ऐसे जीवन को जीने से बेहतर ही रहा कि वह मर गयी.
एक और बर्बर हत्या व बलात्कार की खबर आती है केरल से और देर से जागा मीडिया इस मामले की क्रूरता, बर्बरता में साम्य देखते हुए जिशा को ‘केरल की निर्भया’ कहता है. इसे समझने का एक रास्ता यह भी है, जो मुश्किल है, कि उस समाज की संरचना को समझने का प्रयास किया जाये, जहां कानून की पढ़ाई करके वकील बनने का सपना देखनेवाली तीस वर्षीय दलित स्त्री का उसी के गांव के पुरुष उसी के घर में घुस कर बलात्कार करते हैं, उसके शरीर को रौंदते हैं, उसके किसी भी तरह जिंदा बचने की संभावना को खत्म करने के लिए तेज औजारों से उसका पेट काट कर अंतड़ियां बाहर कर देते हैं. यौनांग में रॉड डाल दी जाती है ऐसे कि उसकी रीढ़ की हड्डी तक टूट जाती है. सिर के पीछे, चेहरे और छाती पर, जगह-जगह चाकुओं से घाव कर दिये जाते हैं. ये दलित मां-बेटी गांव भर की घृणा और तिरस्कार झेलते हुए निरंतर भय के साये में जी रहे थे.
न कोई स्थानीय नेता मदद करने को तैयार था न ही पुलिस शिकायत दर्ज करने को. इस बर्बर घटना के पांच दिन बाद तक भी न स्थानीय पुलिस ने कुछ हरकत की, न ही लोकल मीडिया ने इस घटना को पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने तक कोई तवज्जो दी. आस-पास के पांच घरों में से किसी ने गवाही देना मंजूर नहीं किया. बलात्कारी एक था या एक से अधिक अभी कुछ पता नहीं है. सरकार, पुलिस और समाज का इस पाशविक कृत्य पर यह रवैया विचलित करनेवाला है.
बेहद गरीब और दलित परिवार, जिसका उसके पुरुष ने परित्याग कर दिया था, बड़ी बेटी के अपनी मर्जी से शादी कर लेने की वजह से सामाजिक बहिष्कार झेल रहा था. उसके बावजूद जिशा कानून पढ़ कर वकील होना चाहती थी. समाज की पदसोपानगत संरचना को बनाये रखने के लिए उसे सबक सिखाया जाना जरूरी था. यह बलात्कार जबरन बनाया गया दैहिक संबंध मात्र नहीं था.
इस कोटि की बर्बरता उस हार से उपजती है, जिसमें कोई ताकतवर किसी कमजोर को प्रगति करते हुए देखता है और खुद को सत्ताहीन होते हुए.
स्त्री होना उस पर से दलित और गरीब होना यह तिहरी मार है, जिसे जिशा जैसी स्त्रियां हमारे समाज में झेलती हैं. रोज अपमानित होती हैं. जिशा की लड़ाई कई स्तर पर एकसाथ थी. अपनी लैंगिक पहचान के साथ-साथ अपनी जातीय पहचान की वजह से मिलनेवाले भेद-भाव से जूझते हुए और अपनी गरीबी से भी मुकाबला करते हुए वह अदम्य चाह से अर्नाकुलम लॉ कॉलेज से पढ़ाई कर रही थी. सिर्फ तीन और पर्चे देने के बाद वह ग्रेजुएट होती.
लेकिन, इससे पहले कि वह समाज द्वारा बिछाई अड़चनों से विजय होती, उसे क्रूरता से खत्म कर दिया गया. यह कहानी दस साल पहले शुरू हुई थी. जहां जिशा की मां को हार मान लेनी चाहिए थी, उसने वहां से जिशा के साथ मिल कर संघर्ष को और मजबूती से लड़ना शुरू किया था. यह उस समाज को खटकना ही था, जो दलित और स्त्री को समाज को सबसे निकृष्ट जीव मानता हो. लगातार शिकायतें दर्ज करने के बावजूद न पुलिस ने कोई हरकत की और न ही वहां की पंचायत ने कोई कार्यवाही की. सारा सिस्टम जैसे उनकी जिजीविषा के विरुद्ध हो गया था.
स्त्री के खिलाफ हिंसा दरअसल, उस व्यवस्थागत औजार की तरह काम आती है, जिससे ब्राह्मणवादी-मर्दवादी समाज को गैर-बराबरी को बनाये रखने में मदद मिलती है. दिल्ली की निर्भया जहां पढ़ी-लिखी मध्यवर्गीय परिवार की थी, वहीं जिशा एक दलित- गरीब स्त्री थी. अंतत: स्त्री देह पर हमला करके बराबरी की हर कोशिश का दमन किया जाता रहा है.
भाषा के जरिये भी मर्दवादी सोच के लोग अपनी ताकत के खेल स्त्री की-देह को युद्धभूमि बना कर खेलते रहे हैं. धर्म भी अपनी सत्ता तभी बनाये रख सकता है, जब स्त्री नियंत्रण में रहे. इसलिए जब कहा जाता है कि इस मामले का राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए, तो ऐसा कहनेवालों पर संदेह ही होता है.
एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति कोई बुरी चीज नहीं है, अगर उसके उद्देश्य और लक्ष्य बराबरी के लिए हों, बल्कि केवल राजनीतिकरण से ही ऐसे मामले और प्रकाश में आते हैं, जो सकारात्मक ही है. बलात्कार के मुद्दे पर, दलित स्त्रियों के दमन पर, व्यवस्था द्वारा स्त्री-देह के वस्तुकरण पर देशव्यापी बहस आखिर क्यों नहीं होनी चाहिए? राजधानी में निर्भया के लिए छिड़ा आंदोलन गैर-जरूरी तो नहीं था न! संभवत: सरकारें इसी से बचती हैं और जिशा जैसी स्त्रियों के साथ हुआ अन्याय दब-ढंक जाता है.
यह सही है कि भारतीय समाज में जेंडर को जाति और वर्ग के संदर्भ के बिना नहीं समझा जा सकता. ग्रामीण-आदिवासी इलाकों से स्त्रियों का यह दोहरा शोषण अक्सर ही सुनने में आता है. विडंबना यह भी कि खुद दलित आंदोलन पुरुषवादी रहा और दलित स्त्री की समस्याओं को अनदेखा करता रहा. जाति के सवाल से जूझे बिना भारतीय स्त्रीवाद भी स्त्री के दमन को समझने में कामयाब नहीं हो सकता.
जिशा केस को मीडिया का वैसा ध्यान नहीं मिला, जैसा निर्भया मामले में मिला और उसके तथ्य भी देर से सामने आये. माना कि किसी आंदोलन के आंदोलन बन जाने के लिए कुछ ऐतिहासिक दबाव जरूर होते होंगे, तो कुछ तात्कालिक कारण भी और समाजशास्त्रियों के पास उसके उत्तर भी. लेकिन किसी बलात्कार के साथ बर्बर हिंसा ही जुड़ी होगी तभी हम प्रतिक्रिया करेंगे, यह किसी समाज की असंवेदनशीलता ही दिखाता है.
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