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अनदेखी के अपराध के खिलाफ
विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार बचपन में एक कविता पढ़ी थी- ‘मैं तो वही खिलौना लूंगा मचल गया दीनू का लाल’. आज नौ साल के शाहील के साथ घटी घटना के बारे में पढ़ कर अनायास दीनू का लाल याद आ गया. पश्चिम बंगाल के एक गांव हरिहरपुर में रहता है शाहील. उसके पिता मजदूरी करते […]
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
बचपन में एक कविता पढ़ी थी- ‘मैं तो वही खिलौना लूंगा मचल गया दीनू का लाल’. आज नौ साल के शाहील के साथ घटी घटना के बारे में पढ़ कर अनायास दीनू का लाल याद आ गया. पश्चिम बंगाल के एक गांव हरिहरपुर में रहता है शाहील. उसके पिता मजदूरी करते हैं.
परिवार में मां है, सात साल की बहन माहिमा है. उसके बीमार दादा भी उसी झोपड़ी में रहते हैं, जिसमें तीन हजार रुपये महीना कमानेवाला यह परिवार रहता है. शाहील चौथी कक्षा में पढ़ता है. परीक्षा में हमेशा अव्वल रहता है. उसे पतंग उड़ाने का शौक है. उसकी बहन कहती है, ‘भाई हमेशा पतंगों और उड़ानों की बात करता है. वह पायलट बनना चाहता है. हर उड़नेवाली चीज उसे अच्छी लगती हैö.’ पर शाहील यह भी समझता है कि तीन हजार रुपये महीना कमानेवाला पिता महीने के आखिर में उसे पतंग नहीं दिलवा सकता.
उस दिन शाहील अपने दोस्तों के साथ गली में खेल रहा था. उसकी निगाह एक चुनावी पोस्टर पर पड़ी. उसने अपने दोस्तों के साथ पतंग बना कर उड़ाने के लिए वह पोस्टर फाड़ लिया. उसकी इस हरकत पर पोस्टर लगानेवाली पार्टी के कार्यकर्ता शाहील को पकड़ ले गये. मां शाहना परेशान ढूंढ़ती-फिरती रही. वह उसे एक खाई में पड़ा मिला. उसका सिर सूजा हुआ था, शरीर पर नीले-काले धब्बे थे.
वे कौन थे? बताया था बच्चों ने. वे एक पार्टी के कार्यकर्ता थे. बाद में शाहील के पिता को धमकाने भी आये थे वे लोग. उनकी पार्टी का नाम शाहील और पतंग की इस कहानी में ज्यादा मानी नहीं रखता.
इस घटना को राजनीतिक रंग देने की भी कोशिश हुई. कहा गया कि शाहील का पिता एक पार्टी का पक्षधर है और वह पार्टी पोस्टर वाली पार्टी की विरोधी है. पर मैं यहां राजनीति की बात नहीं करना चाहता. मैं सिर्फ इतना रेखांकित करना चाहता हूं कि एक बच्चा पतंग उड़ाना चाहता है. घर के हालात उसे पतंग खरीदने नहीं देते, इसलिए पतंग बनाने के लिए वह पोस्टर फाड़ लेता है. पोस्टर लगानेवाले उसे इतना मारते हैं कि वह बेहोश हो जाता है. सवाल है कि क्या किसी राजनीतिक पार्टी का चुनावी पोस्टर फाड़ना इतना बड़ा अपराध है कि नौ साल के एक बच्चे को मार-मार कर बेहोशकर दिया जाये? मेरे मन में यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या जरूरत थी शाहील को पतंग उड़ाने की इच्छा पालने की?
शाहील देश की उस वंचित आबादी का प्रतिनिधित्व कर रहा है, जिसे हमारे राजनीतिक दल तरह-तरह के प्रलोभनों, आश्वासनों से सपने तो दिखाते हैं, पर उसे इस लायक बनाने के लिए कुछ नहीं करते कि वह सपने पूरे कर सके. चुनावी मौकों पर वादों और दावों के अंबार लगा दिये जाते हैं.
महत्वाकांक्षाएं जगाने की कीमत पर वोट खरीदे जाते हैं और फिर अगले चुनाव तक भुला दिया जाता है कि जनता के साथ कोई सौदा भी किया गया था. आजादी के बाद से ही हमारे राजनेता हमें भरमा रहे हैं कि गरीबी दूर होगी, सबको रोटी मिलेगी, कपड़ा मिलेगा, मकान मिलेगा. अब हालत यह है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी पेट भर खाने से वंचित है. देश के किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं. देश के युवा बेरोजगार हैं. देश का बचपन पतंग मांगता है, उसे रंगीन चुनावी पोस्टर दिखा कर और ललचाया जाता है. वह जब मचलता है, जिद करता है तो उसे मार-मार कर बेहोश कर दिया जाता है.
मैं नहीं जानता शाहील के माता-पिता ने चुनाव में किसको वोट दिया होगा. पर इतना अवश्य समझता हूं कि यदि वे वोट देने गये होंगे, तो उनके दिमाग में यह बात अवश्य आयी होगी कि उनका शाहील चुनावी पोस्टर की पतंग बनाना चाहता था. हर मतदाता के दिमाग में यह बात आनी चाहिए कि पोस्टरों से भरमानेवाली राजनीति के चेहरे पर मुखौटा क्यों है.
मतदाता के मन में यह मुखौटा उतार फेंकने का विचार आना चाहिए. पतंग उड़ाने की शाहील की आकांक्षा बचकानी जिद नहीं थी. उसके कुछ साथी रंगीन पतंगें उड़ाते थे और वोट का सौदा करनेवाले हमारे राजनेता हर शाहील को रंगीन पतंग देने का वादा करते हैं. शाहील ने तो वादे वाले उस पोस्टर को ही पतंग मानना चाहा था. राजनेताओं से अपना वादा पूरा करवाने की मांग मतदाता का अधिकार है. यही जनतंत्र का तकाजा है. लेकिन, आज जिस तरह की राजनीति हमें दिख रही है, वह एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक की राजनीति है.
उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग की अनदेखी और किसी शाहील के मन में उठनेवाली पतंग उड़ाने की इच्छा वाली आग को न देखने में शायद कोई अंतर नहीं है. इस अनदेखी के अपराध के खिलाफ देश में एक आक्रोश जगना चाहिए. शाहील को चुनावी पोस्टर नहीं, बल्कि हवा में उड़नेवाली पतंग चाहिए. मिलनी ही चाहिए उसे यह पतंग.
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