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संतों का संदेश समझना जरूरी

विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार आप संत रैदास को जानते हैं? यह सवाल मैंने बारहवीं के एक छात्र से पूछा था और उत्तर में उसने कहा था, ‘हां, हाल ही में प्रधानमंत्री उनसे मिलने बनारस गये थे.’ इससे ज्यादा वह कुछ नहीं जानता था संत रैदास के बारे में. हां, कबीर और मीरा का नाम उसने […]

विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
आप संत रैदास को जानते हैं? यह सवाल मैंने बारहवीं के एक छात्र से पूछा था और उत्तर में उसने कहा था, ‘हां, हाल ही में प्रधानमंत्री उनसे मिलने बनारस गये थे.’ इससे ज्यादा वह कुछ नहीं जानता था संत रैदास के बारे में. हां, कबीर और मीरा का नाम उसने सुन रखा था.
कबीर तो उसके कोर्स में भी थे. पर संत दादू या फरीददास का नाम उसने कभी नहीं सुना था. हालांकि, वह यह भी जानता था कि सूरदास एक कवि थे.
बारहवीं के एक छात्र को यदि संत रैदास के बारे में इतना ही पता है कि प्रधानमंत्री उनसे ‘मिलने’ गये थे, तो इसमें दोष किसका है? उस छात्र का, हमारी शिक्षा-व्यवस्था का या फिर उस सारे परिप्रेक्ष्य का जो आज हम अपने छात्रों को दे रहे हैं? इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण सवाल तो यह है कि क्यों पता होना चाहिए बारहवीं के किसी छात्र को संत रैदास के बारे में?
जब मैंने उसे छात्र को यह बताया कि प्रधानमंत्री संत रैदास से मिलने नहीं, उनकी जयंती पर उनके मंदिर में दर्शन के लिए गये थे, तो उस छात्र ने कुछ इस भाव से ‘अच्छा’ कहा था कि उसे इससे क्या लेना! मैं सोच रहा हूं क्यों नहीं कुछ लेना-देना होना चाहिए इक्कीसवीं सदी के किसी छात्र का पंद्रहवी शताब्दी के किसी संत से?
संत रैदास, जिन्हें संत रविदास भी कहा जाता है, उन कवि संतों में से थे, जिन्होंने समाज-सुधार और अध्यात्मिक सोच को बढ़ावा देने का एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया था.
भक्ति-आंदोलन से प्रभावित इस संत का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो मृत जानवरों की खाल का व्यवसाय करता था. ऐसा काम करनेवालों को तब चमार कहा जाता था. ऐसे परिवार में जन्म लेने के बावजूद रैदास संत बने और पांच सौ साल बाद, आज भी, संत रैदास को अपना गुरु माननेवालों की एक विस्तृत परंपरा है. मनुष्य की समानता का संदेश देनेवाले इस संत-कवि के अनुयायी पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि में बड़ी संख्या में रहते हैं.
समता, बंधुता, और न्याय के आधार पर हम जिस नये भारत के निर्माण के सपने देख रहे हैं, उसके लिए रैदास जैसे महान संतों ने सदियों पहले हमारा पथ-प्रशस्त किया था. यह सब पर्याप्त होना चाहिए इस बात के लिए आज हम संत रैदास को क्यों याद करें.
बीते 22 फरवरी को हमारे प्रधानमंत्री रैदास जयंती के अवसर पर उनके जन्मस्थान बनारस गये थे. दिल्ली के मुख्यमंत्री भी उसी दिन बनारस पहुंचे थे. ऐसे अवसर पर नेताओं का संतों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना गलत नहीं है.
लेकिन, यह सवाल तो उठ ही रहा है कि अचानक संत रैदास में हमारे नेताओं की श्रद्धा कैसे जाग उठी? वस्तुतः यह सब उस राजनीति का हिस्सा है, जो महापुरुषों के प्रति भक्ति-भाव को वोट बटोरने का माध्यम बना लेती है. क्या यह मात्र संयोग है कि हमारे नेताओं को रैदास जयंती तब याद आ रही है, जब उत्तर प्रदेश, पंजाब, बंगाल आदि राज्यों में चुनाव होनेवाले हैं? कहीं यह उन दलित वोटों को प्रभावित करने की कोशिश तो नहीं, जो किसी भी चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं? यह सब आकस्मिक नहीं है.
बहरहाल, राजनीति का सच यह है कि आज उत्तर प्रदेश में लगभग इक्कीस प्रतिशत मतदाता दलित हैं और पंजाब में इनकी संख्या लगभग 32 प्रतिशत है. इन दोनों ही राज्यों में चुनाव होने हैं और सभी पक्षों के लिए इतने मतदाताओं को रिझाने की कोशिश करना स्वाभाविक है. जहां तक भाजपा का सवाल है, बिहार के चुनावों में जीत हासिल न कर पाने के बाद यदि इन दो राज्यों में भी भाजपा कुछ करिश्मा नहीं दिखा पाती, तो उसके राजनीतिक भविष्य पर और प्रधानमंत्री मोदी के ‘करिश्मे’ पर संदेह के बादल घुमड़ने स्वाभाविक हैं.
हर ऐसे मौके पर हर पार्टी इस तरह की कोशिशें करतीरही है. और ऐसी हर कोशिश बहुजातीय, बहुधर्मीय, बहुभाषीय भारतीय समाज की सामासिक संस्कृति के ताने-बाने को कमजोर ही करती है.
जरूरत इस ताने-बाने को मजबूत बनाने की है. इसलिए जरूरी है की रैदास जैसे संतों एवं आंबेडकर जैसे विचारकों का राजनीतिक लाभ उठाने के बजाय उनके संदेश को जनमानस की समझ बनाया जाये. संत रविदास ने मानवता को जोड़ने के लिए जातीयता के जाल को तोड़ने का संदेश दिया था. जरूरत इस संदेश को समझने-स्वीकारने की है. जब ऐसा होगा, तब देश का कोई छात्र यह नहीं कहेगा, ‘हां, प्रधानमंत्री मिलने तो गये थे संत रैदास से.’ और इस मिलने का अर्थ संतों के संदेश को समझना होता है. समझने की यह प्रक्रिया लगातार जारी रहनी चाहिए.

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