राष्ट्रपति का यह कथन गौर करने लायक है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवी संगठनों की अगुवाई में चले आंदोलनों ने देश के लोकतांत्रिक ढांचे को एक नयी दिशा दी है. उन्होंने अन्ना आंदोलन का जिक्र करते हुए माना कि जन-आंदोलनों से सरकार पर दबाव पड़ रहा है और वह जनता के हितसाधक कानून बनाने के लिए बाध्य हो रही है.
हालांकि ऐसी स्वीकारोक्ति तनिक देर से आयी, क्योंकि यूपीए सरकार में सामाजिक कार्यकर्ताओं व स्वयंसेवी संगठनों की बात सुनने के लिए बाकायदा एक मंच राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् (एनएसी) नाम से शुरू से चल रहा है. सूचना या शिक्षा का अधिकार हो, मनरेगा या हाल का भोजन का अधिकार, सबमें एनएसी की बैठकों में शामिल संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बढ़-चढ़ कर भूमिका निभायी है. एनएसी के बूते यूपीए ने मान लिया था कि अग्रणी जन-आंदोलनों को विधायी प्रक्रिया में शामिल कर उनके माध्यम से व्यक्त हो रहे जनाक्रोश को थाम लिया जायेगा.
सोच यह थी कि जन-संगठन अगर रोटी-कपड़ा-मकान, शिक्षा व स्वास्थ्य सरीखी बुनियादी जरूरत की चीजों की मांग कर रहे हैं और यही वे क्षेत्र हैं जहां उदारीकरण के दौर में सरकार को खर्चे की कटौती करनी है, तो बढिया होगा कि मांगों का मान रखते हुए कार्यक्रमों को बीपीएल कार्ड आधारित बना दिया जाये. इससे खर्च भी बचेगा और एनएसी में शामिल संगठनों या सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहारे लोगों में संदेश जायेगा कि यूपीए सरकार गरीबों की हमदर्द है. परंतु अन्ना आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक औचक आंदोलन था और ऐसे आंदोलन को एनएसी में शामिल करने की तैयारी नहीं थी.
अब अन्ना आंदोलन की प्रमुख मांगों की धार कुंद करते हुए सरकार ने प्रमुख विपक्षी दल के सहयोग से लोकपाल बिल पारित करा लिया है. इसलिए राष्ट्रपति का बयान एक हद तक इस राजनीतिक सहमति को ध्वनित करता जान पड़ता है कि जनांदोलनों की मांगों को संसद तभी स्वीकार करेगी, जब मौजूदा राजनीति के हितों पर बुनियादी चोट न पड़े. शायद यही वजह है कि कुछ मुद्दों, जैसे भोजन का अधिकार, पर आंदोलन सफल हो जाते हैं, पर कुछ अन्य मुद्दों, जैसे एटमी संयंत्र या बड़े बांधों का विरोध, पर आंदोलन देश-विरोधी तक करार दे दिये जाते हैं!