।। आनंद कुमार।।
(समाजशास्त्री, जेएनयू)
दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों से राजनीति में नयी संस्कृति और भाषा का संचार हुआ है. आम आदमी पार्टी (आप) नामक एक साल पुरानी जमात के लगभग अनाम उम्मीदवारों को सवा सौ साल पुरानी और 15 साल से दिल्ली में सत्ता पर काबिज कांग्रेस की तुलना में साढ़े तीन गुना कामयाबी मिली है. आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने अपनी अराजनीतिक पृष्ठभूमि के बावजूद कांग्रेस की अगली कतार की राष्ट्रीय नेता व दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भारी मतों से हरा कर देश के दिग्गज नेताओं और आम मतदाताओं, दोनों को समान रूप से आकर्षित किया है.
भाजपा प्रत्याशी इस मुकाबले में अपनी वरिष्ठता के बावजूद तीसरे नंबर पर ही पहुंच पाया. अब आठ दिसंबर से सारा देश दिल्ली के मतदाताओं के संदेश को समझने की कोशिश कर रहा है. सबके मन में कुछ अहम सवाल हैं. क्या चरित्रवान उम्मीदवारों और आदर्शवादी तरीकों से चुनाव जीतना फिर से संभव हो गया है? क्या देश में वोट बैंक की राजनीति और धनबल व बाहुबल के समीकरण से सत्ता पाने के दिन पूरे हो रहे हैं? यदि दिल्ली के मतदाताओं ने 15 साल के एकछत्र शासन के बावजूद कांग्रेस के मुकाबले में एक आंदोलनधर्मी नवोदित पार्टी को प्राथमिकता दी है, तो क्या 2014 के आम चुनाव में पिछले दस बरस से राज चला रहे यूपीए के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और संयोजिका सोनिया गांधी का भी ऐसा ही आदर्शवादी, आम आदमी आधारित विकल्प उभरेगा?
दिल्ली में यह भी रोचक सच सामने आया है कि रैलियों की बरसात के बावजूद वोटरों पर एनडीए के नये महानायक नरेंद्र मोदी के आवाहन का लगभग उतना ही असर हुआ, जितना भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के आधार समूह के नायक अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, मनीष सिसोदिया आदि की मुहल्ला सभाओं और सड़क यात्रओं का. अगर भाजपा को 70 में से 32 सीटें मिली हैं, तो आप को 28. इसमें भी विजयी महिला व साधारण पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों तथा आरक्षित विधानसभा क्षेत्रों के मामले में आप ने भाजपा से बेहतर नतीजे पेश किये हैं. तो क्या गुजरात से चला मोदी की भारत विजय यात्र का रथ तीन राज्यों को जीतने के बावजूद दिल्ली में रोका जा चुका है?
यह तो निश्चित ही साफ है कि इस बार दिल्ली के मतदाताओं ने कई वोट बैंकों का हाल खस्ता कर दिया है. दिल्ली के नतीजों से घबरा कर मुलायम सिंह की सपा और मायावती की बसपा ने अपनी प्रादेशिक इकाइयों को ही भंग कर दिया है. करिश्मा तो किसी का भी नहीं बचा. न क्षेत्रवादी, न राष्ट्रवादी, न मार्क्सवादी, न इंदिरावादी. पीएम पद के कुछ अन्य स्वघोषित उम्मीदवारों के दलों ने भी किस्मत आजमायी, पर राकांपा से लेकर राजद और लोजपा आदि का भी चिराग बुझ गया है. जबकि सभी ने राजनीति में जनसाधारण के मुद्दों को वापस लाने और चुनाव की पवित्रता को पुनस्र्थापित करने के आप के भगीरथ प्रयास में अपने-अपने तरीके से अवरोध पैदा किये थे.
आखिर आप की इस अविश्वसनीय सफलता का क्या रहस्य है? मोटे तौर पर तीन कारणों को जोड़ कर देखने से बात स्पष्ट हो सकती है और लगता है कि यदि ये तीन कारण 2014 के आम चुनाव के दौरान भी एकजुट रखे जायें, तो दिल्ली से मिलते-जुलते नतीजे ही मिलने की संभावना है. पहला, बीते दो वर्षो से आदर्शवादी नागरिकों, खासकर शिक्षित युवक-युवतियों द्वारा जनजागरण और जनआंदोलन का सिलसिला चलाया गया. पहले उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल की व्यवस्था के लिए अन्ना हजारे जी के नेतृत्व में किये गये अनशन के दौरान दिल्ली के हर तीसरे स्त्री-पुरुष ने अपने को इस आंदोलन से कई तरीके से जुड़ा महसूस किया. फिर निर्भया के साथ दिसंबर में हुए राक्षसी दुष्कर्म के खिलाफ लगभग सभी स्त्रियां व सभ्य पुरुष व्यथित और आंदोलित हुए. दूसरी ओर सत्ताधीशों ने स्त्री हिंसा के खिलाफ हुए जनविद्रोह को कानून-व्यवस्था के उल्लंघन की दृष्टि से ही देखा. वे जनता से दूर खड़े रहे. पुलिस बल का बेजा इस्तेमाल किया. फिर बिजली की महंगाई और पानी की सौदागरी का मामला उठा. आप के कार्यकर्ताओं ने बिजली के बहाने मुनाफाखोरी की अति करनेवाली बड़ी कंपनियों और पानी माफिया के दांवपेंच को सीधी चुनौती दी. इस पर सत्ताधारी पार्टी हकलाती दिखी और भाजपा ने आप के मुद्दों को ही अपनाने की आधी-अधूरी कोशिश की. चुनाव के कुछ पहले महंगाई और कालाबाजारी के सीधे संबंधों का खुलासा हुआ. देश में प्याज का उत्पादन बढ़ा, पर बाजार में प्याज के भाव भी बढ़े. सरकार आढ़तियों से मुनाफाखोरी रोकने की प्रार्थना कर रही थी, पर उत्पादक राज्यों से प्याज खरीदने के बारे में उदासीन थी. जरूरी चीजों की महंगाई से निपटने के लिए जमाखोरी बंद करने की बजाय सरकारी पार्टी के मंत्री और प्रवक्ता आम आदमियों को उनसे अपनी खपत घटाने का उपदेश दे रहे थे.
आंदोलन और असंतोष के इस परिवेश में दूसरा कारण आप द्वारा जनसाधारण के बीच से अपने उम्मीदवारों की तलाश और चुनाव के लिए जनसाधारण से खुले चंदे के जरिये जरूरी धनराशि इकट्ठा करने की सहज रणनीति थी. तीसरा कारण, साधारण और सपाट घोषणापत्रों के बजाय हर विधानसभा क्षेत्र की समस्याओं को चिह्न्ति करनेवाले विशिष्ट घोषणापत्रों की प्रस्तुति और देशभर से स्वयंसेवकों को बुला कर घर-घर दस्तक देने की प्रचार व्यवस्था का आकर्षण रहा है. वस्तुत: यही भारतीय जनतंत्र के स्वस्थ दौर का तौर-तरीका था. बीच के दिनों में नवदौलतिया जमातों ने राजनीति के अपराधीकरण का षडय़ंत्र किया. इससे छोटी-बड़ी पार्टियां धनशक्ति और बाहुबलियों के दबाव में आ गयीं. इस दोष को अस्मिता की राजनीति की आड़ में छुपाये रखा गया.
पिछले बीस वर्षो में देशी-विदेशी कंपनियों ने हमारे लोकतंत्र को, विशेषकर जन-प्रतिनिधियों को अपने हितों का चौकीदार बना लिया है. इससे दलों के अंदर लोकतंत्र और चुनाव में लोकतांत्रिक मर्यादाएं, दोनों का हरण हुआ. चुनाव लोकशक्ति के उत्सव के बजाय मतदान की पूर्वनियोजित जनविमुख रस्म जैसा होता चला गया था. लेकिन हर बुराई का मुकाबला आखिर में अच्छाई से होता ही है. दिल्ली का चुनाव शुभ और अशुभ की शक्तियों का पहला खुला संग्राम जैसा रहा है. इसीलिए आप का यह चुनावी नारा अन्य दलों के विभिन्न नारों के मुकाबले ज्यादा आकर्षक सिद्ध हुआ- ‘निकलो आज मकानों से, जंग लड़ो बेईमानों से.’ इसी के फलस्वरूप मतदान में नौ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और नतीजों में भी क्रांतिकारी बदलाव आया.