आरटीआइ आने के कुछ वर्षों बाद दो बातें निकल कर आयीं. पहली, इस कानून के माध्यम से निकलता एक से बढ़ कर एक घोटाला और अनियमितता, जिसको दूर करने के लिए समयबद्ध और असरकारक कानून की आवश्यकता है. दूसरी, भ्रष्टाचार का खुलासा कर व्यवस्था के अंदर कोढ़ के रूप में भ्रष्टाचारियों से लड़नेवाले कार्यकर्ता की सुरक्षा के लिए कानून की आवश्यकता.
देश के आम नागरिकों को नयी सरकार बनाने के लिए मतदान करते वक्त अधिकार का जो एहसास होता है, कमोबेश वही एहसास ‘सूचना का अधिकार अधिनियम 2005’ के आने के बाद हुआ था. इसके जरिये पहली बार साधन, सुविधा और ताकत के लिहाज से समाज के सबसे अंतिम कतार में खड़े एक निरीह आदमी को भी सत्ता के सर्वोच्च शिखरों पर बैठे व्यक्तियों एवं संस्थानों से सीधेे और जब चाहे, काम एवं पैसों का लिखित हिसाब-किताब मांगने का हक मिला.
लंबे संघर्ष के बाद 2005 में यूपीए सरकार ने आरटीआइ और मनरेगा जैसे दो महत्वपूर्ण कानून लागू किये, जिसे कांग्रेस आज भी अपनी बड़ी उपलब्धियों में गिनाती है. हालांकि बाद में, कुछ अपवाद को छोड़ दें तो, केंद्र की यूपीए सरकार सहित, जो आरटीआइ कानून बनने के बाद नौ साल तक सत्ता में रही, ज्यादातर राज्य सरकारों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसे कमजोर करने की ही कोशिश की.
इस कानून के बनने के कुछ दिनों के बाद ही, इस कानून में संशोधन कर ‘फाइल नोटिंग’(अधिकारियों की जवाबदेही तय करने के लिए, जो इस कानून का प्राण है) को इस कानून से बाहर करने की कोशिश की गयी, परंतु जनदबाव एवं मीडिया की सक्रिय भूमिका की वजह से यह संभव नहीं हो पाया. बाद में केंद्रीय सूचना आयोग और अलग-अलग प्रदेशों के राज्य सूचना आयोगों में कई ऐसे व्यक्तियों को भी आयुक्त के पदों पर नियुक्तियां की जाती रही हैं, जिन्हें आम जनता के हित से कम, सरकारी बाबुओं और सरकार के हित से ज्यादा प्यार है.
इस सिलसिले में केंद्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग की भी उत्साहवर्द्धक भूमिका नहीं रही. यहां केंद्रीय सूचना आयोग में भारत के प्रथम एवं तत्कालीन मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह के फैसले (अपील नंबर- CIC/WB/A/2007/00189) का जिक्र आवश्यक है, जिसमें मैं स्वयं शामिल था. यह मामला 2006 का है, जब डाॅ कौस्तुभा उपाध्याय द्वारा डीओपीटी से एक आइएएस से पिछले तीन साल में लिये गये अचल संपत्ति का ब्योरा मांगा गया, जिसे डीओपीटी ने व्यक्तिगत सूचना बता कर खारिज कर दिया.
यह मामला 2007 में केंद्रीय सूचना आयाेग पहुंचा, जिसकी सुनवाई 2008 में मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह ने की. डीओपीटी एवं केंद्रीय सूचना आयोग के लिए यह केस काफी अहम था, क्योंकि आवेदक के हक में फैसला जाने पर किसी भी आइएएस, आइपीएस या कोई भी सरकारी वेतनभोगी की संपत्ति की जानकारियां आम जनता में जाने के दरवाजे खुल जाते. मैं डीओपीटी के विरुद्ध आवेदक की तरफ से पक्ष रखने के लिए उपस्थित था. मैंने कई तथ्य रखे, परंतु मुझे लगता है कि मेरे जिस तर्क से आयोग ज्यादा प्रभावित हुआ, और जिसका जिक्र अपने फैसलों में भी किया, वह यह था कि यदि जनप्रतिनिधि को चुनाव से पूर्व नॉमिनेशन के समय ही अपनी चल एवं अचल संपत्ति की घोषणा करनी पड़ती है, तो लोकसेवक यानी वेतन भोगी सरकारी मुलाजिम, जो पूर्णकालिक और लंबे समय तक लिए नियुक्त हों, उन्हें अपनी संपत्ति का ब्योरा देने से क्यों छूट मिलनी चाहिए?
बाद के दिनों में जब जनता द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से माननीय न्यायाधीशों की संपत्तियों की जानकारी मांगी गयी, तो उनका रुख मीडिया की सुर्खियां बना. जनता द्वारा जब बड़ी संख्या में राज्यों से पदाधिकारियों और कर्मचारियों की संपत्ति से संबंधित सूचनाएं मांगी जाने लगीं. तदुपरांत कई राज्य सरकारों ने पदाधिकारियों और कर्मचारियों की संपत्ति का ब्योरा विभागीय वेबसाइट द्वारा पब्लिक डोमेन में लाने का निर्णय भर लिया, जिसे राज्य सरकारों ने साहसिक निर्णय के रूप में प्रदर्शित किया.
यह कानून भारत के प्रत्येक नागरिक को जानने का उतना ही, यानी बराबर का, अधिकार देता है, जितना अधिकार संसद में बैठे सांसदों को और विधानसभा में बैठे विधायकों को है. मीडिया, स्वयंसेवी संस्थाओं एवं कार्यकर्ताओं ने बिना सरकारी खर्चे के इस कानून की जानकारी को आम जनता तक पहुंचाया. लाखों लोगों के वर्षों से रुके हुए वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, इंदिरा आवास, मनरेगा इत्यादि में छोटे-छोटे काम इस कानून के तहत आवेदन देने के बाद हो गये, क्योंकि अधिकारियों के लिए रुके हुए काम का लिखित कारण बताना मुश्किल था.
इतना ही नहीं, आम जनता जब पंचायत से लेकर मंत्रालय तक से काम और खर्च की जानकारियां इस कानून के तहत मांगने लगी, तो मनरेगा, वृद्धा पेंशन, इंदिरा आवास, राशन, मध्याह्न भोजन, सड़क, अस्पताल, कोयला से लेकर काॅमनवेल्थ खेल इत्यादि के घोटाले के साक्ष्य बाहर आने लगे. इसमें कुछ पदाधिकारियों एवं कर्मचारियों की भी सराहनीय एवं साहसिक भूमिका रही, जिन्होंने सरकार एवं अपने ही विभागों की नीति और उसके पीछे की नियति को इस कानून का इस्तेमाल कर पर्दाफाश किया. इस कानून से पत्रकारिता का भी खास हित सधता है, क्योंकि सटीक सूचना के बिना पत्रकारिता भी कपोल कल्पित है.
पिछले एक दशक का अनुभव यही बताता है कि सरकार कहीं की भी हो, अंदर से सहज और उत्साहित कोई भी नहीं. सरकारी रियायत प्राप्त बड़े-बड़े क्षत्रपों के अधीन बीसीसीआइ हो या अलग-अलग खेल संघ या संस्थान, ये अपने आय-व्यय का हिसाब इस कानून के तहत देने के लिए तैयार ही नहीं. यहां तक कि जनता के सहयोग से एवं जनता के हित के लिए बनने और चलने का दावा करनेवाली पार्टियाें से भी जब जनता पार्टी फंड के आय-व्यय की महज जानकारी मांगती है, तो जानकारी नहीं देने के लिए ऐसे-ऐसे तर्कों का पहाड़ खड़ा कर यह साबित करने की कोशिश करती हैं कि इस छोटी सी जानकारी को जनता को देने से राजनीतिक एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था ही खतरे में पड़ जायेगी.
सूचना का अधिकार कानून के आने के कुछ वर्षों बाद दो बातें निकल कर आयीं. पहली, इस कानून के माध्यम से निकलता एक से बढ़ कर एक घोटला और अनियमितता, जिसको दूर करने के लिए समयबद्ध और असरकारक कानून की आवश्यकता है. दूसरी, भ्रष्टाचार का खुलासा कर व्यवस्था के अंदर कोढ़ के रूप में भ्रष्टाचारियों से लड़नेवाले कार्यकर्ता, जो आये दिन शहीद होते हैं, की सुरक्षा के लिए कानून की आवश्यकता. इस दोनों का प्रतिफल था जनलोकपाल बिल एवं व्हिसिल ब्लोअर बिल, जिसको लेकर अन्ना आंदोलन हुआ, जिसका मैं भी एक छोटा सिपाही था. यह आपातकाल के वक्त जेपी आंदोलन के बाद का ऐसा आंदोलन था, जिसने लोकतंत्र के सबसे मजबूत और ताकतवर मंदिर ‘संसद’ के दोनों सदनों को झुकने को मजबूर किया था, ताकि स्वराज की तरफ बढ़ने के लिए कदम मजबूत हों. आरटीआइ कानून स्वराज की तरफ बढ़ने के लिए एक मजबूत कदम है, पर यदि देश को गांधी के पूर्ण स्वराज को पाना है, तो यह बड़ी और लंबी लड़ाई आम जनता को स्वयं लड़नी होगी.
संतोष कुमार
सामाजिक कार्यकर्ता
santosh.du@yahoo.com