प्रकृति में परिवर्तन बड़े महीन होते हैं, रोजाना की आपाधापी में उन्हें देख पाना आसान नहीं होता. प्रकृति में हो रहे बदलावों से बेखबर हम एक खास ढर्रे पर जिंदगी जीते जाते हैं, मानो विकास का एक तयशुदा ढर्रा खोज लिया गया हो और हमारा काम सिर्फ इस ढर्रे पर चल कर नये-नये मुकाम हासिल करना हो.
प्रकृति मानवीय हस्तक्षेप के कारण अपने भीतर होनेवाले परिवर्तनों की चेतावनी देती रहती है, पर हम तब तक इसकी अनसुनी करते हैं, जब तक कि कोई आपदा हमें घेर न ले. धरती से वनों का घटना एक ऐसी ही चेतावनी है, जो हमसे विकास के अपने नजरिये में बदलाव की मांग करती है. इस हफ्ते जारी ‘संयुक्त राष्ट्र ग्लोबल फॉरेस्ट रिसोर्सेज एसेसमेंट 2015’ बताती है कि बीते 25 सालों में दुनिया की वन-संपदा में तीन फीसदी की कमी हो गयी है.
दक्षिण अफ्रीका अपने आकार में जितना बड़ा है, करीब उतने ही बड़े आकार की (करीब 13 करोड़ हेक्टेयर) वन-संपदा औद्योगिक विकास एवं अन्य जरूरतों के कारण नाश की नियति को प्राप्त हुई है. और वन संपदा नष्ट होने की रफ्तार भारत में अन्य देशों के मुकाबले ज्यादा है. वन-संपदा के नाश के साथ पूरे जीव-जगत के नाश का सवाल जुड़ा है. बीते जून में एक साइंस जर्नल में छपी रिपोर्ट में कहा गया था कि पिछले सौ साल में धरती से कुल 477 केशरुकी (रीढ़धारी) प्राणी समाप्त हो गये हैं.
अगर धरती पर मनुष्य अपने आधुनिक रूप में नहीं रहता, तो अस्तित्व के नाश की स्वाभाविक गति के हिसाब से 1900 से अब तक महज 9 प्रकार के कशेरुकी प्राणी ही खत्म होते, 477 किस्म के रीढ़धारी प्राणियों को समाप्त होने में करीब 10 हजार वर्ष लगता. साइंस जर्नल के शोध में स्पष्ट कहा गया कि जिस गति से धरती से जीव-प्रजातियों का नाश हो रहा है, वह जैव-विविधता में आ रही भयानक कमी का संकेतक है.
अगर जीव-प्रजातियों के नष्ट होने की यही रफ्तार जारी रही, तो महज दो पीढ़ियों के भीतर धरती से 75 फीसदी जीव-प्रजातियां विलुप्त हो जायेंगी और अगर मनुष्य ने अपनी जीवनशैली आज जैसी ही बनाये रखी, तो दो सौ-सवा दो सौ वर्षों के भीतर यह धरती ही खत्म हो सकती है. जाहिर है, प्रकृति के बदलावों के भीतर बजती महाविनाश की पगध्वनि मानवता को संदेश दे रही है कि हमें विकास की अपनी प्राथमिकताओं के बारे में फिर से सोचना होगा. वन बचेंगे, तो ही धरती और धरती पर जीवन बचेगा.