।।पुष्पेश पंत।।
(विदेश मामलों के जानकार)
पाकिस्तान के साथ संवाद को हर कीमत पर जारी रखने का हमारे प्रधानमंत्री का हठ देश को बहुत नुकसान पहुंचाता रहा है. यह उनकी पीढी के पंजाबी शरणार्थी की भाव विह्वलता का उदाहरण है और कुछ नहीं. खबरों के मुताबिक पाकिस्तानी घुसपैठियों ने नियंत्रण रेखा के पास केरन सेक्टर के वीरान पड़े गांव शाला भाटा के खाली घरों में मोरचा संभाल कर सीमा पर करगिल जैसे हालात पैदा कर दिये हैं. बताया गया है कि उनके पास इतना गोला-बारूद है कि वे कई दिनों तक मुकाबला कर सकते हैं और अपनी भूमि को खाली कराने के लिए भारत को युद्ध के लिए मजबूर होना पड़ सकता है. जब भी हमारी और पाकिस्तान की नागरिक सरकारें अपने संबंधों को सामान्य बनाने और तनाव घटाने की दिशा में कदम बढाती हैं, हमारे बैरी वार्ता को पटरी से उतारने के लिए कोई-न-कोई भड़काऊ हरकत कर ही देते हैं.
हमेशा की तरह इस समय भी हमें सीख दी जायेगी कि युद्धोन्माद फैलाना देश के हित में नहीं है. यह एक बेहद संवेदनशील मसला है, जिसके बारे में उपलब्ध जानकारी को जनता के साथ साझा नहीं किया जा सकता. हमारे जांबाज सिपाही सीमा पर हर चुनौती का मुंहतोड़ जवाब देने में समर्थ हैं, आदि. इतना ही नहीं, देश की आंतरिक राजनीति में जो बहुत कुछ घट रहा है, उससे भी हमारा ध्यान इस संकट से भटक सकता है. दागी सजायाफ्ता राजनेताओं को अपदस्थ करनेवाला सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला और उसे निरस्त करनेवाले अध्यादेश को वापस लिये जाने से जुड़ी बहस इसका एक उदाहरण है. साथ में सांप्रदायिक दंगों के कारण पैदा हुई चुनावी चिंताएं, रुपये की कीमत और आर्थिक मोरचे पर खस्ता हालत आदि विदेश तथा सुरक्षा नीति से जुड़े अहम मामलों को खतरनाक ढंग से हाशिये पर धकेल सकते हैं.
करगिल से लेकर अब तक का अनुभव यही बताता है कि भारत को इस खुशफहमी में डाल कर कि परस्पर भरोसा बढ़ानेवाले प्रयास जारी रखने से ही अमन की आशा जीवित रखी जा सकती है और पाकिस्तान की नागरिक सरकार को मजबूत किया जा सकता है, पाकिस्तानी फौज तथा खुफिया एजेंसी आइएसआइ परदे के पीछे से अपने षड्यंत्र बदस्तूर जारी रखे हुए हैं. नवाज शरीफ जब पिछली बार तख्तनशीन थे, तब भी ऐसा ही हुआ था. समझदारी इसी में है कि अच्छे की आशा करने के साथ-साथ हम खुद को बुरे-से-बुरे के लिए भी तैयार रखें.
अगर सीमा पर से इस समय जो चिंताजनक सूचनाएं मिल रही हैं, वह निराधार भी निकलती हैं, तब भी इस बात का भरोसा नहीं किया जा सकता कि भविष्य में पाकिस्तान इस रणनीति का अनुसरण नहीं करेगा. भारत की यह आशा बेबुनियाद साबित होती रही है कि अमेरिका भारत के खिलाफ पाकिस्तानी हरकतों पर अंकुश लगाने में मददगार हो सकता है. जहां तक उसके अपने सामरिक स्वार्थ हैं, शीत युद्ध से अब तक पाकिस्तान ही उसके लिए भारत से कहीं अधिक महत्वपूर्ण रहा है. इसी तरह चीन भी भारत को ही एशिया में अपना प्रतिद्वंद्वी मानता है, जिसकी नाक में नकेल डालने के लिए वह पाकिस्तान के साथ सहयोग करता रहा है. जहां तक पाकिस्तानी हुक्मरानों का सोचना है, उनको आशंका है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद भारत ‘अफ पाक’ कहे जानेवाले मोरचे पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में कामयाब होकर उनका सिरदर्द बढ़ा सकता है. वे यह भी जानते हैं कि तालिबान की वापसी में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है और फिर हिंसा का लावा बह कर पाकिस्तान की तरफ ही आयेगा. इसीलिए पूरब की ओर ‘पारंपरिक शत्रु’ भारत को निशाने पर रखना पाकिस्तान के लिए कई मायने में लाभप्रद रह सकता है. इसी पृष्ठभूमि में ही पाकिस्तान की ताजा घुसपैठ का विश्लेषण किया जाना चाहिए.
इस बात का जोखिम कम नहीं है कि हमारी कमजोर और लचर सरकार इस मोरचे पर भी वैसा ही आचरण करेगी, जैसा वह चीन के साथ लगती सरहद पर आक्रामक और विस्तारवादी अतिक्रमण के साथ करती रही है. फर्क सिर्फ इतना है कि चीन के साथ भिड़ने की हमारी हिम्मत नहीं हो सकती, परंतु चुनाव के ठीक पहले देश की एकता और अखंडता को संकटग्रस्त कर, फिर प्रतिपक्ष को सरकार का साथ देने के लिए पुकारने जैसी आत्मघातक रणनीति अपनाने का लालच इस सरकार को हो सकता है. कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि मौके का फायदा उठा कर पाकिस्तान भड़काऊ हरकतें करता रहता है या फिर परोक्ष आक्रमण करने की कुचेष्टा करता है, तो उसे नजरअंदाज करना चाहिए. चुनौती यह है कि जिन नेताओं ने इस जोखिम को पैदा किया है, उनकी जिम्मेवारी और जवाबदेही के सवाल भी उठाये जाने चाहिए.