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अन्न को ही प्रसाद क्यों नहीं मान लेते?

बचपन से ही हमें बताया गया है कि प्रसाद का सम्मान करना चाहिए. इसे मांग कर खाना चाहिए. मंदिरों में भी हम प्रसाद चढ़ाते हैं. जहां प्रसाद मिल रहा हो, वहां चाहे कितनी भी भीड़ क्यों न हो, हम थोड़ा-सा प्रसाद लेकर ही वहां से हटते हैं. साईं बाबा मंदिर के बाहर प्रसाद के रूप […]

बचपन से ही हमें बताया गया है कि प्रसाद का सम्मान करना चाहिए. इसे मांग कर खाना चाहिए. मंदिरों में भी हम प्रसाद चढ़ाते हैं. जहां प्रसाद मिल रहा हो, वहां चाहे कितनी भी भीड़ क्यों न हो, हम थोड़ा-सा प्रसाद लेकर ही वहां से हटते हैं. साईं बाबा मंदिर के बाहर प्रसाद के रूप में मिली खिचड़ी खाने के बाद मेरे दोस्त ने मुझसे कहा, ‘‘प्रसाद कितना स्वादिष्ट होता है न?’’ मैंने जवाब दिया, ‘‘हां, सही कह रहे हो तुम.’’ ‘‘पर क्यों?’’, उसका अगला सवाल मेरे सामने था.

मैंने कहा, ‘‘असल में यह आस्था का प्रतिफल है. स्वादिष्ट तो होना ही है.’’ घर लौटने के बाद इस विषय पर जब मैंने चिंतन किया, तो उस प्रसाद के स्वादिष्ट होने के पीछे मुङो कई कारण नजर आने लगे. हम दुनिया के सामने खुद को चाहे कितना भी बड़ा, कितना भी महान या फिर कितना भी संपन्न क्यों न दिखा लें, लेकिन सच तो यह है कि उस भगवान के सामने हम एकदम झुक जाते हैं, जिनके प्रति हमारी आस्था होती है. इसी आस्था की वजह से हमें पत्थर और तसवीरों में भी वे सजीव नजर आते हैं. मन में हम उनकी कल्पना को साकार करते हैं. ध्यान में भी उन्हें सजीव रूप में ही देखते हैं. उसी प्रकार से उनके लिए बने प्रसाद को भी खाकर हम खुद को तृप्त महसूस करते हैं. ऐसा महसूस करते हैं, जैसे कि अमृत का पान कर लिया हो. यह संभव है कि वही चीज यदि प्रसाद की बजाय किसी अन्य रूप में हमें खाने को मिले, तो हम उसे स्वादहीन बता कर खायें भी ना.

बात आस्था की है, अपने धर्म के प्रति, भगवान के प्रति. हम में से किसी की भी जिंदगी आसान नहीं है, चाहे हम आस्तिक हों या फिर नास्तिक. जब विपत्ति आती है और इनसान की कोशिशें जवाब देने लगती हैं और कोई रास्ता नहीं सूझता है, तो आस्तिक आस्थावश भगवान की शरण में जाकर कहते हैं कि अब तो बस तुम ही बेड़ा पार लगा सकते हो भगवान. वैसे ही नास्तिक भी भले ही किसी भगवान को नहीं पूजते हों, लेकिन उनकी भी आस्था खुद के विश्वास और प्रयासों में होती है. विपत्ति के वक्त वे भी प्रेरणादायी किताबें पढ़ कर और अपनों से हौसला पाकर लड़ते हैं. इस आस्था से ही आखिरकार प्रेम पैदा होता है. यह प्रेम प्रसाद के लिए भी हो सकता है और पत्थर की मूर्तियों के लिए भी. टीके के लिए भी हो सकता है और चरणामृत के लिए भी. प्रसाद के स्वादिष्ट लगने के पीछे एक वजह और भी है. वह है हमारे अंदर का भय. यह भय भी सकारात्मक है. आम धारणा यह है कि प्रसाद का अपमान कदापि न करें. इससे भगवान नाराज हो जायेंगे. इसलिए इसका दाना-दाना चाट कर खाते हैं. सच में कितना महत्वपूर्ण है प्रसाद! अब जरा सोचिए कि सभी यदि भोजन को प्रसाद मान कर ही खाने लगें, तो अन्न का फेंका जाना कितना कम हो जायेगा और कितने अनाज की बचत होगी, जिससे कि भूखों का पेट भर पायेगा.

शैलेश कुमार

प्रभात खबर, पटना

shaileshfeatures@gmail.com

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