।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।
(लेखक अर्थशास्त्री हैं)
यह पतन 1000 ई के बाद शुरू हुआ. इसके पहले करीब 4000 वर्षो तक हम समृद्ध थे. सिंधु घाटी, महाभारतकालीन इंद्रप्रस्थ, बौद्धकालीन लिच्छवी, मौर्य, विक्रमादित्य, गुप्त, हर्ष एवं चालुक्य साम्राज्यों ने हमें निरंतर समृद्धि प्रदान की थी. इन 4000 वर्षो में हमारे प्रमुख ग्रंथ, जैसे वेद, उपनिषद, रामायण और महाभारत आदि, की रचना हो चुकी थी. अत: मानना चाहिए कि इन ग्रंथों ने हमारे समाज को आध्यात्मिक उन्नति के साथ–साथ आर्थिक समृद्धि व राजनीतिक वैभव का मंत्र दिया था.
सन् 1000 के बाद महमूद गजनी, मुगल एवं ब्रिटिश लोगों ने हम पर धावा बोला और हमें परास्त किया. विचार योग्य है कि 1000 ई के आसपास ऐसा क्या हुआ कि 4000 वर्षो से समृद्ध सभ्यता अचानक अधोगामी हो गयी? ऐसा प्रतीत होता है कि शंकर के दर्शन के गलत प्रतिपादन के कारण यह हुआ. शंकर के समय को लेकर विद्वानों में विवाद है. कुछ का मानना है कि वे 800 ई के आसपास हुए, दूसरे विद्वानों का मानना है कि वे इससे बहुत पहले हुए थे. लेकिन इस विवाद में पड़े बिना कहा जा सकता है कि 800 ई के आसपास आदिशंकर ने स्वयं या उनके किसी विशेष शिष्य ने इस धरती पर भ्रमण किया था.
उपलब्ध विषय के लिए शंकर का मुख्य मंत्र है ‘ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या’. शंकर ने सिखाया कि यह जो संपूर्ण जगत दिख रहा है यह एक ही शक्ति का विभिन्न रूपों में प्रस्फुटन है. मनुष्य स्वयं भी उसी एक ब्रह्म का स्वरूप है. अत: मनुष्य को चाहिए कि सांसारिक प्रपंचों में लिप्त होने के स्थान पर उस एक ब्रह्म से आत्मसात करे. तब उसे वास्तविक सुख की प्राप्ति होगी. ब्रह्म से आत्मसात करने पर व्यक्ति ब्रह्म की इच्छानुसार व्यवहार करेगा, जैसे कंपनी में नौकरी करने के पर व्यक्ति मालिक की इच्छानुसार व्यवहार करता है.
ब्रह्म क्या चाहता है? यदि ब्रह्म निष्क्रिय और अंतमरुखी है तो साधक को भी निष्क्रिय व अंतर्मुखी होना चाहिए. पर यदि ब्रह्म सक्रिय है तो मनुष्य को उसके चाहे अनुसार सक्रिय रहना चाहिए. उपनिषदों में लिखा है कि पूर्व में ब्रह्म अकेला था. उसने सोचा ‘मैं अकेला हूं, अनेक हो जाऊं.’ यानी अनेकता ही ब्रह्म की इच्छा थी, जैसे अनेकों प्रकार के पशु–पक्षी, पेड़–पौधे हैं. पर अनेकता कष्टप्रद होती है, जैसे भाई–भाई अपने को अलग मानने लगें तो वैर करते हैं. वहीं यदि अपने को एक परिवार मानें तो मित्रता और प्रसन्नता रहती है.
मेरी समझ में मूल समस्या यही है कि व्यक्ति खुद को स्वतंत्र समझने लगा है. इससे वह संपूर्ण सृष्टि से नहीं जुड़ पाता है. एक उदाहरण से समझें. क्रिकेट टीम का हर खिलाड़ी टीम को जिताने के लिए खेले तो टीम जीतती है और वह भी. पर खिलाड़ी सिर्फ अपनी विशेषता दिखाना चाहें तो टीम में कलह उत्पन्न होता है और टीम हारती है.
शंकर ने इसका हल ‘ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या’ के रूप में निकाला. इसका अर्थ है कि जगत के आकर्षणों को मिथ्या समझ कर संपूर्ण जगत के हित के लिए कार्य करें. अपने 32 वर्ष के अल्प जीवन में शंकर सदा सक्रिय रहे– बौद्धों को शास्त्रर्थ में हराया, मंदिरों का उद्धार किया, उपनिषदों पर टीका लिखी और चार मठ स्थापित किये. यदि जगत मिथ्या था, तो इन कार्यों की क्या आवश्यकता थी?
1000 ई के बाद भूल यह हुई कि शंकर के अनुयायी जगत को मिथ्या बता निष्क्रिय हो गये. वे भूल गये कि संपूर्ण जगत ब्रह्म है, अत: यदि ब्रह्म सत्य है, तो जगत भी सत्य ही है. जब देश पर आक्रमण हो रहे थे, ये अनुयायी कंदराओं में बैठ कर ब्रह्म से एका कर रहे थे. जगत मिथ्या होने के बाद बचा ‘मैं’. यह ‘मैं’ स्वतंत्र हो गया. उसे जगत के हित–अहित को देखने की चिंता नहीं रही. जगत में गरीब मरता है तो मरने दो. इससे विचलित होने की आवश्यकता नहीं है! इसी कड़ी में आज देश के नेताओं के लिए सिर्फ अपने हित को साधना स्वीकार हो गया है. उन्हें राष्ट्र दिखाई नहीं दे रहा है.
व्यक्तिवादी उपभोग हेतु प्रकृति यानी जल, जंगल, जमीन का अतिदोहन सृष्टि की उपेक्षा ही है. ऐसा आर्थिक विकास हमें दीर्घकाल में गहरे संकट में डालेगा. अत: शंकराचार्य के मंत्र को ‘सृष्टि सत्यम् व्यक्ति मिथ्या’ के रूप में समझना चाहिए. मेरा मानना है कि उक्त परिवर्तन करने पर देश की दबी हुई ऊर्जा प्रस्फुटित हो जायेगी और हम विश्व में अपना उचित स्थान फिर हासिल कर लेंगे.