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छवि-केंद्रित राजनीति के दौर में

आज के इस इंटरनेटी और टेलीविजनी दौर में किसी ‘अराजक’ को ‘सफल प्रशासक’ के रूप में देखा-दिखाया जा सकता है. कौए को मोर और मोर को कौए में तब्दील करने का यह दिखावा ही भारतीय लोकतंत्र को एक विराट तमाशे में तब्दील कर रहा है. बचपन में एक कथा पढ़ी थी. कौए को मोर का […]

आज के इस इंटरनेटी और टेलीविजनी दौर में किसी ‘अराजक’ को ‘सफल प्रशासक’ के रूप में देखा-दिखाया जा सकता है. कौए को मोर और मोर को कौए में तब्दील करने का यह दिखावा ही भारतीय लोकतंत्र को एक विराट तमाशे में तब्दील कर रहा है.

बचपन में एक कथा पढ़ी थी. कौए को मोर का पंख मिला. मोरपंख लगा कर वह मोरों के झुंड में पहुंचा और इठलाया कि मैं भी मोर हूं. मोरों का सरदार बोला, मोरपंख लगाने भर से कोई मोर नहीं होता. मोरों के झुंड में हंसी उड़ता देख आखिरकार कौए ने मोरपंख निकाल फेंका और फिर से कांव-कांव करता हुआ डाली पर जा बैठा. यह कथा पुराने समय की सोच की है, जब किसी के कुल-खानदान को जान कर उसके चाल-सुभाव का अनुमान किया जाता था. सो, कोई चाहे तो मोरपंख लगाये कौए के साथ हुए हिकारत के बरताव के भीतर जातिवादी सोच को ढूंढ़ सकता है. चूंकि कथा के भीतर कई अर्थसंकेत होते हैं. इसलिए, इसे दल-बदल की राजनीति पर भी लागू कर सकते हैं.

भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन में अरविंद केजरीवाल का साथ देनेवाले दो प्रमुख चेहरे किरण बेदी और शाजिया इल्मी के दिल्ली विधानसभा चुनावों के ऐन पहले भाजपा में जाने से दल-बदल का सवाल एक बार फिर से मुखर हुआ है. शाजिया का भाजपा में जाना उतना हैरतअंगेज नहीं, जितना कि किरण बेदी का. पलटीमार राजनीति की व्याख्या में कहा जा सकता है कि राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं नेता को अकसर मौकारपरस्त बनाती हैं. मौकापरस्ती से सिद्धांतों की राजनीति की हानि होती है. लेकिन, शाजिया का सियासी वजन इतना भारी नहीं कि वे खुद को किसी सिद्धांत के प्रतीक के रूप में स्थापित कर सकें. ‘आप’ में सिद्धांत के प्रतीक अरविंद केजरीवाल हैं, ठीक वैसे ही जैसे आज की भाजपा में सिद्धांतों के प्रतीक नरेंद्र मोदी हैं. सो, शाजिया की पलटीमार राजनीति को पार्टी के सिपहसालारों के संख्याबल में हुई हानि के रूप में देखा जा सकता है, पार्टी के सिद्धांतों की हानि के रूप में नहीं.

अन्ना आंदोलन के बाद किरण बेदी ने आम आदमी पार्टी बनाने को आंदोलन के साथ ‘विश्वासघात’ बताया था. तब उनकी छवि गैर-दलीय और सत्ताविरोधी राजनीति के मुखर समर्थक के रूप में उभरी. तब उनका कहना था कि सभी राजनीतिक दल भ्रष्टाचारी हैं और उन पर अंकुश रखने का कारगर तरीका स्वयं राजनीतिक दल बनाने में नहीं, बल्कि सूचना का अधिकार या लोकपाल जैसी संस्थाओं को सशक्त बनाने के लिए सतत आंदोलन करने में है. बेदी की कोशिश स्वयं को ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ नामक आंदोलनधर्मी राजनीति के प्रतीक के रूप में खड़ा करने की रही. लोकपाल का मुद्दा संसद के गलियारे में बंद पड़ा है, राजनीतिक दल आरटीआइ कानून के दायरे से अब भी बाहर हैं. ऐसे में ‘आप’ के समर्थक ठीक ही अचरज में हैं कि राजनीतिक दलों के चरित्र में ऐसा क्या घटित हुआ कि बेदी ने अपनी पुरानी छवि को तोड़ कर एक राजनीतिक दल का मोरपंख अपने माथे पर सजाना उचित समझा है?

दरअसल, किरण बेदी के भाजपा में जाने को सिर्फ मौकापरस्ती नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मौके को लपकने से जुड़ी असहजता दोतरफी है. मोदी की पार्टी को अपनाना उनके लिए सहज नहीं था, क्योंकि मोदी की सियासत से वे अब तक प्रश्न पूछती आयी थीं. भाजपा के लिए भी किरण को अपनाना हलक में कड़वे घूंट उतारने की तरह है, क्योंकि किरण बेदी आंदोलन-धर्मी होने के कारण मोदी के लिए घोषित तौर पर ‘अराजक’ की श्रेणी में आती हैं. गवर्नेस को अपना देव माननेवाली भाजपा के साथ यदि एक मूर्तिभंजक ‘अराजक’ खड़ा दिखता है, तो इस उलटबासी की वजह आज के मीडिया परिवेश में खोजा जाना चाहिए.

देश में 90 करोड़ से ज्यादा मोबाइल धारक, 12 करोड़ से ज्यादा घरों में टीवी और 30 करोड़ इंटरनेट उपयोक्ता हैं. पहले पार्टियां कार्यकर्ताओं के बूते पैदल चल कर मतदाताओं तक पहुंचती थीं, आज टेलीविजनी छवियों और इंटरनेटी संदेशों के सहारे पहुंचती हैं. पार्टियों का मीडिया माध्यमों पर विश्वास व खर्च अभूतपूर्व रूप से बढ़ा है. चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, बीते चुनाव में भाजपा ने 700 करोड़ खर्च किये, जिसमें 300 करोड़ रुपये सिर्फ मीडिया माध्यमों पर खर्च किये गये. मीडिया लोकतांत्रिक राजनीति के संदेश के विस्तार को सिकोड़ कर नारे-मुहावरे में तबदील करता है और राजनेता व पार्टियों के इतिहास को सिकोड़ कर किसी एक व्यक्ति की छवि में केंद्रित कर देता है. पार्टियां जानती हैं, इमेज मेकओवर के सहारे कम समय में किसी चूहे को हाथी बनाया जा सकता है. छवि-केंद्रित इस राजनीति में लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं मायने नहीं रखतीं, सिर्फ उनका विश्वास बनाये रखना जरूरी होता है.

बेदी आज मोदी के साथ हैं, क्योंकि संकेतों के महीन हेर-फेर से इंटरनेटी व टेलीविजनी दौर में किसी ‘अराजक’ को ‘सफल प्रशासक’ के रूप में देखा-दिखाया जा सकता है. कौए को मोर और मोर को कौए में तब्दील करने का यह दिखावा ही भारतीय लोकतंत्र को एक विराट तमाशे में तब्दील कर रहा है. कौवा तो खैर वापस लौट आया था, लेकिन बेदी का वापस आंदोलन-धर्मियों के बीच आना संभव न हो पायेगा.

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस

chandanjnu1@gmail.com

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