महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनावी उपलब्धि के बाद भी भाजपा में संयम वांछनीय होगा. जनतंत्र में विपक्षी अल्पसंख्यकों को ही नहीं, साथी अल्पसंख्यकों को भी अपनी बात कहने का पूरा मौका दिया जाना जरूरी है.
हरियाणा और महाराष्ट्र की विधानसभा चुनावों के नतीजे आ चुके हैं. इन नतीजों के आनेवाले दिनों में हमारे जीवन पर पड़नेवाले प्रभाव के बारे में अटकलबाजी आरंभ हो चुकी है. ये चुनाव न केवल कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन कर प्रकट हुए, वरन् शिवसेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, इंडियन नेशनल लोकदल और हरियाणा जनहित पार्टी सरीखे स्थानीय दलों के लिए भी चुनौती पेश करते रहे हैं. लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने निरंतर ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की बात उठायी थी- इसे मतदाताओं ने गंभीरता से लिया और उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार में कांग्रेस खत्म हो गयी. तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में तो पहले ही कांग्रेस का कोई नाम लेवा नहीं बचा था.
इस बारे में अब बहस की गुंजाइश नहीं बची है कि मतदाताओं ने दोनों ही राज्यों में उन सभी नेताओं को ठुकरा दिया है, जो कुनबापरस्ती के प्रतिनिधि हैं या जिनकी आपराधिक छवि है. जेसिका लाल हत्याकांड के सजायाफ्ता अपराधी मनु शर्मा के साधन संपन्न, ताकतवर माता-पिता दोनों को ही अपने गढ़ में हार मिली. छह बार विधानसभा का चुनाव जीतनेवाले कैप्टन अजय यादव (लालू प्रसाद के समधी) को भी अपनी सीट गंवानी पड़ी. हां, कुछ चिंताजनक अपवाद अब भी बचे हैं. हुड्डा का अपने इलाके में दबदबा हो या चौटाला कुनबे का अपने राजनीतिक अहाते में खौफनाक असर, ये यही दर्शाते हैं कि हमारे जनतंत्र में ‘जेबी जागीरें’ आज भी कहीं-कहीं हार-जीत तय करती हैं. इनका खात्मा किये बिना भारत स्वच्छ नहीं हो सकता.
कहा जा रहा था कि ये चुनाव नरेंद्र मोदी की अग्नि परीक्षा हैं. अमित शाह के सामने भी विकट चुनौती यह प्रमाणित करना समझी जा रही थी कि उन्होंने लोकसभा के चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा को जो जीत दिलायी थी, वह मात्र संयोग या सिर्फ मोदी-लहर का चमत्कार नहीं था, बल्कि इसके लिए उनकी असाधारण संगठन क्षमता और प्रबंध कौशल को जिम्मेवार समझा जाना चाहिए.
कुछ आलोचक यह विश्लेषण करने और उसे प्रसारित करने को उतावले नजर आ रहे थे कि मोदी-लहर का ज्वार सौ दिन बीतते-बीतते भाटे में बदलने लगा है, अत: हरियाणा और महाराष्ट्र में भी वैसा ही नतीजा देखने को मिल सकता है, जैसा हाल के उपचुनावों में उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार या राजस्थान में दिखा था.
इस घड़ी इस जमीनी हकीकत को नकारना असंभव है कि यह चुनाव मोदी के करिश्मे और अमित शाह की संगठन क्षमता की जुगलबंदी से ही भाजपा जीती है. यह मीन-मेख निकालने से विपक्षियों को कुछ हासिल नहीं होनेवाला, कि महाराष्ट्र में भाजपा अकेले अपने बलबूते पर सरकार नहीं बना रही है और इसे उसकी रणनीति की हार समझा जाना चाहिए! यहां यह भी जोड़ने की जरूरत है कि मोदी का ‘करिश्मा’ और उनकी असाधारण लोकप्रियता का आधार समावेशी विकास का वह सपना है, जिसकी साङोदारी बहुत असरदार ढंग से उन्होंने देश के नौजवानों के साथ की है. कांग्रेसी भले ही यह कहते न थकते हों कि मोदी और भाजपा के साथ जनता का ‘हनीमून’ खत्म हो चुका है, वह अब और बेवकूफ बनाये जाने को तैयार नहीं, परंतु सच्चाई यह है कि देश आज भी भाजपा और नरेंद्र मोदी को काम करने देने के लिए, अपने वादे पूरे करने के लिए कुछ और मोहलत देने को तैयार है.
इन नतीजों के निहितार्थ समझने के लिए इनके निकट भविष्य में सामने आनेवाले परिणामों तथा दूरंदेशी सोच-विचार के बाद अन्यत्र संभावित प्रभावों की पड़ताल ठंडे दिमाग और तर्कसंगत तरीके से करने की दरकार है. इसके लिए दलगत राजनीति तथा सरकार बनाने की जोड़-तोड़ से हट कर सोचना परमावश्यक है.
एक दिलचस्प बात यह है कि महाराष्ट्र में एनसीपी का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है. गंठबंधन तोड़ने का खामियाजा कांग्रेस को ही अधिक भुगतना पड़ा है. कांग्रेस मतदाता की नजर में एक परिवार की दुकान भर है, कोई खुद को कितने भी कद्दावर नेता के रूप में पेश कर इतराते फिरे ‘आलाकमान’ के सामने सभी बौने हैं- आलाकमान को हांकनेवाला चाबुक सिर्फ सोनिया के हाथ में है और अनवय ‘वरिष्ठ नेता’ टहलुए दरबारियों सरीखा आचरण ही करते हैं. जगजाहिर है कि एनसीपी पवार के प्रभुत्व के बावजूद पारिवारिक धंधे तक सीमित नहीं. उसमें अन्य नेताओं के लिए जगह है. पवार का वर्चस्व बारामती क्षेत्र में उनके बरसों के परिश्रम के कारण बरकरार है. उन्हें बड़े गन्ना किसानों का, पूजीपति उद्यमियों, भू-विकास-भवन निर्माताओं का हिमायती माना जाता है. मुख्यमंत्री एवं केंद्रीय मंत्री के रूप में उनका प्रशासनिक अनुभव उनकी नेतृत्व क्षमता को स्थानीय मतदाता की नजर में बहुमूल्य बनाता है.
शरद पवार भली-भांति समझते हैं कि भविष्य में भारतीय राजनीति का संचालन नौजवान पीढ़ी ही करेगी. नौजवान मतदाता की नब्ज न पहचाननेवाला नेता और दल इस परिप्रेक्ष्य में कोई निर्णायक भूमिका नहीं निभा सकता. जहां तक उनके अपने उत्तराधिकारियों का प्रश्न है, पुत्री सुप्रिया और भतीजे अजित पवार के बीच किसे वारिस चुना जायेगा, इसे लेकर भी ज्यादा बहस की गुंजाइश नहीं. अजित पवार अपने कार्यकाल में खासी बदनामी कमा चुके हैं. भ्रष्टाचार के जिन आरोपों ने कांग्रेस और एनसीपी की लुटिया डुबोयी, उनमें अधिकतर का ‘श्रेय’ अजित पवार को ही दिया जा सकता है. यह कहना गलत नहीं कि आनेवाले दिनों में ‘महाराष्ट्र के हित में’ ‘देश के आर्थिक विकास की गति बरकरार रखने के लिए’ एनसीपी भाजपा के साथ, कम-से-कम महाराष्ट्र में मुद्दा-परक सहकार की मुद्रा अपना सकती है. जहां तक अहंकारी महत्वाकांक्षाओं के टकराव का सवाल है, यहां भी देश के प्रधानमंत्री पर दोषारोपण उचित नहीं लगता. उद्धव ही अदूरदर्शी और मरीचिका में फंसे नजर आते हैं. बेचारे राज ठाकरे की नाकामपस्ती तो और भी दर्दनाक है.
यहां गौरतलब है कि इन नतीजों का मतलब यह नहीं है कि अब भाजपा जहां जी चाहे अपने गंठबंधन के साथियों से पिंड छुड़ाने के लिए छटपटाने लगे- झारखंड हो या पंजाब, समझदारी यही होगी कि ‘एकला चलो रे’ को चुनावी सेना के कूच गान के रूप में न बुलंद किया जाये. जब तक निर्णायक और निर्विवाद रूप से भारत को कांग्रेस मुक्त नहीं कर दिया जाता, तब तक भाजपा को प्रभुता का मद नहीं होना चाहिए. इस चुनावी उपलब्धि के बाद भी भाजपा में संयम वांछनीय होगा. जनतंत्र में विपक्षी अल्पसंख्यकों को ही नहीं, साथी अल्पसंख्यकों को भी अपनी बात कहने का पूरा मौका दिया जाना जरूरी है.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com