आज केदारनाथ और आसपास के इलाकों में आयी भीषण आपदा के एक वर्ष बाद जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं, तो पाते हैं कि समाज और व्यवस्था ने उससे कोई सबक नहीं लिया है. जो त्रासदी भविष्य में ऐसी आपदाओं का सामना करने में हमारी तैयारी का आधार बन सकती थी, हम उसका समुचित आकलन व अध्ययन करने में असफल रहे हैं.
स्थिति यह है कि अब तक हमें मृतकों और लापता लोगों की सही संख्या भी मालूम नहीं है. केदार घाटी में मृत तीर्थयात्राियों व स्थानीय निवासियों के क्षत-विक्षत कंकाल आज भी बड़ी संख्या में मिल रहे हैं. दुख और क्षोभ की बात यह भी है कि इन शवों को सरकार नहीं, बल्कि गांवों के लोग ढूंढ रहे हैं. इस त्रासदी में 5000 से अधिक लोगों के लापता होने की आशंका है. आपदा के कुछ दिन बाद सभी शवों के मिल जाने और उनके अंतिम संस्कार कर देने का दावा कर खोजबीन का काम बंद कर देनेवाली उत्तराखंड सरकार अब कह रही है कि उसने कभी ऐसा दावा किया ही नहीं! केदार घाटी के विनष्ट गांवों और उनके निवासियों के पुनर्वास के काम में भी सरकार असफल रही है.
इतना ही नहीं, पिछले वर्ष आयी विनाशकारी बाढ़ और इसके फलस्वरूप हुई इस भयावह त्रासदी के कारणों की भी ठीक से विवेचना नहीं हुई है. आपदा से तीन दिन पहले से ही इलाके में भारी वर्षा के पूर्वानुमान जताये गये थे और वर्षा हो भी रही थी, इसके बावजूद प्रशासन ने जरूरी एहतियाती कदम नहीं उठाये. तबाह इलाकों के पुनर्निमाण के काम में प्रगति भी अत्यंत निराशाजनक है. नदियों के रास्ते बदलने और किनारों पर पत्थर लगाने की परियोजना के लिए 60 करोड़ रुपये निर्धारित किये गये थे.
पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के कार्यकाल में बस इसकी घोषणा हो सकी थी और मुख्यमंत्री हरीश रावत के कार्यभार संभालने के साथ ही नदियों का जलस्तर बढ़ने लगा. क्षेत्र में सड़कें बनाने और मरम्मत का काम ठप्प है. हमें यह भी स्वीकारना होगा कि यह आपदा मानवीय गलतियों का भी नतीजा थीं. अंधाधुंध निर्माण और पर्यटकों की अनियंत्रित भीड़ से हिमालयी क्षेत्र में पारिस्थितिक असंतुलन पैदा हो रहा है. केदारनाथ त्रासदी से सरकार व समाज यदि सचमुच विचलित हैं, तो उन्हें ऐसी त्रासदी से बचने के बारे में अपनी समझ पर पुनर्विचार करना होगा.