साहित्य समाज का प्रतिबिंब होता है. वह समाजिक परिवेश में घटित-अघटित घटनाओं एवं विमर्शो का वाहक भी है. लेकिन वर्तमान समय शायद भौतिकता की अंधी दौड़ में इतना आगे निकल चुका है कि पीछे छूट गये नैतिक मूल्यों, संस्कारों, साहित्यिक व वैचारिक विमर्शो की परिभाषा ही भूल गया है. जो देश को दिशानिर्देशित कर सकते हैं, वे साहित्यकार उपेक्षित हो रहे हैं.
आज किसी के पास समय नहीं कि उनकी बात सुने. मीडिया ने भी (कुछ को छोड़ कर) बहती गंगा में हाथ धोते हुए राजनीतिक ताने-बानों के फोकस में रह कर प्रसिद्ध होने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है. नकारात्मक सोच, हिंसा, घृणा, नारी-अपमान, सांस्कृतिक अवमूल्यन से परिपोषित युवा पीढ़ी का दिशानिर्देशन करना तो दूर, खबरों को तोड़-मरोड़ कर एक भटकाव लाने कोशिश भी हो रही है. क्या यह परंपरा भी सरकार या व्यवस्था ही बदलेगी? पद्मा मिश्र, जमशेदपुर