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कांग्रेस का कठिन रास्ता

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com चुनाव आयोग के इनकार के बाद ‘एक देश, एक चुनाव’ का भाजपा का अभियान फिलहाल निकट भविष्य में फलीभूत होता नहीं दिखता. भाजपा शुरू में यह माहौल तो बना ही रही थी कि 2019 में आम चुनाव के साथ आठ-दस राज्यों के विधानसभा चुनाव भी करा लिये जाएं. चार राज्यों […]

नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
चुनाव आयोग के इनकार के बाद ‘एक देश, एक चुनाव’ का भाजपा का अभियान फिलहाल निकट भविष्य में फलीभूत होता नहीं दिखता. भाजपा शुरू में यह माहौल तो बना ही रही थी कि 2019 में आम चुनाव के साथ आठ-दस राज्यों के विधानसभा चुनाव भी करा लिये जाएं. चार राज्यों के चुनाव वैसे भी लोकसभा के साथ होने हैं.
चार राज्यों के चुनाव, जो इस वर्ष के अंत तक होने हैं, कुछ टालकर और एक-दो अन्य राज्यों में समय पूर्व चुनाव कराकर ‘एक देश, एक चुनाव’ का श्रीगणेश किया जा सकता था. इसमें किसी संविधान संशोधन की भी जरूरत नहीं थी.
भाजपा के बारंबार दोहराये गये प्रस्ताव और विधि आयोग की पहल से अगर ऐसा कोई माहौल बना भी था, तो व्यावहारिक कारणों से मुख्य निर्वाचन आयुक्त के स्पष्ट इनकार के बाद सबसे ज्यादा राहत कांग्रेस ने ली होगी.
कांग्रेस को लग रहा था कि भाजपा ‘एक देश, एक चुनाव’ को भी येन-केन प्रकारेण हर चुनाव जीतने की अपनी रणनीति में शामिल कर रही है. मसलन, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के चुनाव, जहां भाजपा सत्ता विरोधी रुझान का सामना कर रही है, लोकसभा के साथ कराकर वह अपना नुकसान टालने की चाल चल रही है, क्योंकि तब क्षेत्रीय से ज्यादा राष्ट्रीय मुद्दे चुनाव को प्रभावित कर रहे होंगे.
कांग्रेस का भला ऐसी हवाई राहतों से नहीं होनेवाला. यदि मोदी-शाह ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के नारे पर अमल करने पर तुले हैं, तो कांग्रेस के बचाव का एक ही तरीका हो सकता है कि वह नयी परिस्थितियों में व्यावहारिक रणनीति अपनाये, अपने मूल्यों से स्वयं को पुनर्जीवित करे, संगठन को सुदृढ़ एवं व्यापक बनाये और पलटवार करे. क्या कांग्रेस के भीतर ऐसे कोई तैयारी चल रही है?
बीते मार्च में हुए कांग्रेस महाधिवेशन और पिछले मास कांग्रेस कार्यसमिति ने 2019 के आम चुनाव में ‘सांप्रदायिक शक्तियों को हराने’ और ‘देश के निर्माताओं के सपनों के अनुरूप भारत के विचार को बहाल’ करने के लिए ‘समान विचार वाले’ दलों से गठबंधन का व्यावहारिक मार्ग अपनाना तय कर लिया था. आम चुनाव दूर नहीं हैं. क्या इस दिशा में उसने कुछ कदम आगे बढ़ाये?
पार्टी के हालात को देखते हुए साल 2003 की तरह गठबंधन का नेतृत्व करने का दावा हालांकि इस बार कांग्रेस ने छोड़ दिया है, लेकिन राज्यसभा के उप-सभापति के चुनाव में उसके पास अच्छा मौका था कि वह भावी गठबंधन के लिए विभिन्न क्षेत्रीय दलों को जोड़ने की पहल करती, पर इसमें वह सफल नहीं हो सकी. क्षेत्रीय दल भी आपस में कोई सूत्र नहीं जोड़ सके. गठबंधन की रणनीति में फिलहाल एनडीए बेहतर हाल में दिखायी देता है.
बीजद का कांग्रेस-विरोध नया नहीं है, लेकिन राज्यसभा के उप-सभापति के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने भी उसके प्रत्याशी को वोट नहीं दिया, जबकि अरविंद केजरीवाल भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रबल विरोधी मानते हैं.
यह विरोधाभास बताता है कि भाजपा के खिलाफ एक मजबूत और बड़ा गठबंधन बनाना कांग्रेस के लिए कितना मुश्किल होनेवाला है. कुछ क्षेत्रीय दल ऐतिहासिक कारणों से कांग्रेस-विरोधी हैं, तो कुछ को लगता है कि आज की स्थितियों में कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने की बजाय अकेले ही भाजपा का मुकाबला करना अच्छा होगा. इस द्वंद्व से उन्हें उबारने का उत्तरदायित्व भी कांग्रेस को लेना होगा.
भाजपा-विरोधी दलों को वह साध सके, इसके लिए कांग्रेस को पहले संगठन को चाक-चौबंद करना होगा. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस संगठन निष्क्रिय है. तीन दशक से सत्ता से बाहर रहने के अलावा भी इसके कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं. राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान संभाले पर्याप्त समय हो चुका, लेकिन वे अब तक उत्तर प्रदेश में एक पूर्णकालिक पार्टी अध्यक्ष नहीं दे सके. यूपी और बिहार ही क्यों, आसन्न चुनाव वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी पुराने कांग्रेसी दिग्गज पार्टी हित में काम करने के बजाय एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता ठाने हुए हैं.
क्या यह अच्छा नहीं होता कि कांग्रेस वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के मुकाबले अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने मैदान में उतरती? व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का टकराव ही उसे ऐसा करने से रोकता है. खतरा उठाकर दो टूक फैसले करने और अपेक्षाकृत नये चेहरों को सामने लाने से राहुल भी बचते आ रहे हैं. बचाव की यह शैली कांग्रेस के बचे-खुचे कार्यकर्ताओं में जोश कैसे भरे?
साल 2018 की कांग्रेस नेहरू की कांग्रेस नहीं है. पुराने दिग्गजों और मूल्यों को एक किनारे कर इंदिरा गांधी ने 1971 में उसे नया अवतार दे दिया था. आज राहुल के पास इंदिरा वाली कांग्रेस भी नहीं है. उनके पिता राजीव गांधी ने शाहबानो प्रकरण तथा अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने एवं राम मंदिर के शिलान्यास की अनुमति देकर कांग्रेस की भटकन और पतन का जो रास्ता खोला था, उसने पार्टी को पुराने जनाधार से वंचित कर खोखला किया.
साल 1997 से सोनिया के बागडोर संभालने के बाद कांग्रेस कुछ संभली और गठबंधन की राजनीति का नया दौर उसने सफलता से चलाया. यूपीए-2 की बदनामियों और मोदी के नेतृत्व में भाजपा के नये अवतार ने उसे 2014 में जो पटकनी दी, उससे उबरने का रास्ता अब उसे खोजना है. यानी कांग्रेस को नया अवतार लेना है. इसके लिए जिस दृष्टि, खतरे उठाने की जरूरत है, क्या राहुल उसे समझते हैं? उसके लिए तैयार हैं?
दलित राजनीतिक नेतृत्व के उभार, मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद पिछड़ा वर्ग की गोलबंदियों और भाजपा की उग्र हिंदू ध्रुवीकरण की रणनीति ने 1990 के बाद से भारतीय समाज और चुनावी राजनीति को उलट-पुलट दिया है. इसमें कांग्रेस के लिए जगह सिकुड़ती गयी, किंतु ऐसा भी नहीं कि उसके लिए संभावना खत्म हो गयी हो.
साल 2014 में भारी बहुमत पानेवाली भाजपा को मात्र 31 प्रतिशत मत मिले थे, जो स्वतंत्र भारत के इतिहास में लोकसभा में बहुमत पानेवाली किसी भी पार्टी को मिले सबसे कम वोट हैं.
जिसे कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव में ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ कहा गया है, उसकी बहुत बड़ी जगह आज के भारत में भी है. उस जगह को भरने लायक विश्वास कांग्रेस पा सके, यह कोशिश राहुल कर सकें, तो कांग्रेस का पुनर्जन्म हो. अन्यथा, उन्हें तब तक इंतजार करना होगा, जब तक भाजपा अपनी ही गलतियों से उनके लिए जगह खाली न कर दे.

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