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बुद्धिजीवी बनाम बेवकूफ

अंशुमाली रस्तोगी व्यंग्यकार मैंने लेखन के मैदान में कदम ‘बुद्धिजीवी’ बनने के लिए ही रखा था. ऐसा जुनून सवार था कि सोते-जागते, खाते-पीते, चलते-फिरते तरह-तरह के बुद्धिजीवियों के बारे में ही सोचता रहता. ऐसे बंदों की तलाश में रहता जो कुछ न हों, पर बुद्धिजीवी जरूर हों. इस दीवानगी में हुआ यह कि मेरे बेवकूफ […]

अंशुमाली रस्तोगी
व्यंग्यकार
मैंने लेखन के मैदान में कदम ‘बुद्धिजीवी’ बनने के लिए ही रखा था. ऐसा जुनून सवार था कि सोते-जागते, खाते-पीते, चलते-फिरते तरह-तरह के बुद्धिजीवियों के बारे में ही सोचता रहता. ऐसे बंदों की तलाश में रहता जो कुछ न हों, पर बुद्धिजीवी जरूर हों. इस दीवानगी में हुआ यह कि मेरे बेवकूफ दोस्त मुझसे कन्नी काटने लगे. मुझे आता-जाता देख दायें-बायें हो लेते. उनके साथ उठना-बैठना भी कम होने लगा. हम दो अलग-अलग दुनिया में बंट गये.
बिना किसी फिक्र के मुझ पर तो एक ही नशा चढ़ा था बुद्धिजीवी बनने का. (हालांकि मैं जानता था कि बेवकूफ से बुद्धिजीवी बनना कठिन है फिर भी…). धीरे-धीरे मैं कई तरह के बुद्धिजीवियों के संपर्क में आया. उनसे मेल-जोल व उनके साथ बैठना-उठना भी बढ़ाया. दो बातें मैं कहता, तो चार वे कहते. गंभीरता का आलम हमारे बीच यह रहता कि हर चेहरा मातमी-सा नजर आता. मजाल है जो किसी के चेहरे पर गलती से भी हंसी का इजहार हो जाये.
इस तरह बे-हंसी रहना मुझे खलता तो था, मगर दिमाग में जो बुद्धिजीवी बनने का फितूर था, उसको कहां ले जाता. फिर भी, प्रयासरत था कि कैसे भी करके बुद्धिजीवी बन जाऊं. बुद्धिजीवी बनने की कोशिश में मैंने ऐसी-ऐसी किताबें तक पढ़ डाली थीं, जिनका आगा-पीछा मुझे आज तक समझ नहीं आया. विचार दिमाग पर इस कदर हावी होने लगे थे कि संडास जाने से लेकर दफ्तर जाने तक मैं विचार से ही लड़ता-भिड़ता रहता था. चक्करबाजी में दो गर्ल-फ्रेंड्स ने मेरा साथ यह कहते छोड़ दिया था- ‘तुम नीरसता को प्राप्त हो चुके हो. राेमांस तुममें अब जरा भी शेष नहीं.’ इस दुख को भी मैंने जैसे-तैसे झेलकर पार किया.
बुद्धिजीवी बनने के दुष्परिणाम धीरे-धीरे सामने आने लगे. बुद्धिजीविता एक बोझ टाइप बनती जा रही थी. कभी-कभी तो लगता था कि बुद्धिजीवी होने की जिद में मुझे कहीं पागलखाने की हवा न खानी पड़ जाये!
खैर, इस भूत को उतारने में थोड़ा वक्त अवश्य लगा, लेकिन इसे उतारकर ही माना. बुद्धिजीवी होने का चस्का मेरी बेवकूफी को दबा रहा था. जितनी स्वतंत्रता मैं बेवकूफ रहकर एन्जॉय कर पाता था, बुद्धिजीवी बनकर तो सारा खेल ही गड़बड़ा गया था.
बेवकूफ होना ज्यादा सहज और सरल है, बनिस्बत बुद्धिजीवी बनने के! यह बात मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह रहा हूं. बहुत सारा दुचित्तापन अपनाना पड़ता है बुद्धिजीवी बनकर. बुद्धि को दबाव में रखना पड़ता है, जबकि बेवकूफों के साथ ऐसा कोई झंझट नहीं. बेवकूफ हर हाल में प्रसन्न रहते हैं. बुद्धि को दिमाग से मुक्त रखते हैं.
थोड़ा देर से ही सही, पर मेरी समझ में आ गया कि मैं बुद्धिजीवी होकर नहीं, बल्कि बेवकूफ बने रहकर ही सुखी हूं. अब सोचता हूं कि बुद्धिजीवी लोग ताउम्र बुद्धिजीवी बने रहने का बोझ कैसे उठा लेते हैं, भाई!

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