कूटनीति में नर्म और गर्म धाराएं

II मृणाल पांडे II वरिष्ठ पत्रकार mrinal.pande@gmail.com आदमी और संस्था, सरकारों और उनके वैदेशिक विभागों के बीच दुनिया में हमेशा दोतरफा बरताव रखा जाता रहा है. इसी कारण अंतरराष्ट्रीय कूटनीति नर्म और गर्म इन दो समांतर पटरियों पर एक साथ चलायी जाती है. हर नयी सरकार राजनय की इस दोहरी वृत्ति की बाबत नये सिरे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 27, 2018 7:18 AM
II मृणाल पांडे II
वरिष्ठ पत्रकार
mrinal.pande@gmail.com
आदमी और संस्था, सरकारों और उनके वैदेशिक विभागों के बीच दुनिया में हमेशा दोतरफा बरताव रखा जाता रहा है. इसी कारण अंतरराष्ट्रीय कूटनीति नर्म और गर्म इन दो समांतर पटरियों पर एक साथ चलायी जाती है.
हर नयी सरकार राजनय की इस दोहरी वृत्ति की बाबत नये सिरे से तय करती है कि वह किस पटरी का अधिक प्रयोग करेगी. पुरानी सरकार से विरासत में मिले राजनय के फाॅर्मूले में हर नयी सरकार उसी तरह आधिकारिक हेरफेर करना अपना जरूरी हक मानती है, जिस तरह नया डॉक्टर अपने मरीज को उसके पुरानेवाले डाॅक्टर की लिखी दवाओं में.
आज पचास के दशक की तरह फिर एक नेता, एक पार्टी का केंद्र पर राज है, और सत्ता में आते ही उसके शीर्ष नेतृत्व द्वारा राजनय के पुराने (नेहरू निर्मित) फाॅर्मूले को नकारते हुए नर्म और गर्म कूटनीति का नया नक्शा बनाया और लागू कराया गया है. यह नया नक्शा किस हद तक खुद प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व पर टिका है, इसका प्रमाण 2014 में अनेक चोटी के विश्वनेताओं की मौजूदगी में आयोजित उनके रंगारंग शपथग्रहण समारोह में देश-दुनिया के सामने रख भी दिया गया.
तब से अब तक खल्क खुदा का मुल्क बादशाह का, की तर्ज पर विदेश मंत्रालय भले ही सुषमा स्वराज जैसी अनुभवी नेत्री के हाथ में हो, लेकिन कब किस देश से, किस तरह का नर्म या गर्म रुख अपनाया जायेगा, इसकी पहल प्राय: प्रधानमंत्री कार्यालय से ही होती रही है.
विदेश नीति के तहत राजनयिक व्यवहार में गर्म यानी पारंपरिक कूटनीति वेदव्यास और चाणक्य के समय से रही है. नर्म कूटनीति की भी अपनी जगह थी, पर वह गुप्तचरी या सुंदरियों तथा स्वर्णादि के तोहफों से चुपचाप भीतरखाने चलती रहती थी, राजदरबार का उससे कोई प्रचारित रिश्ता नहीं जताया जाता था. आज सारी दुनिया में महादेशों में बुलंद कदबुतवाले नेतृत्व का उदय हो रहा है.
इसलिए नर्मपंथी राजनय (बकौल अमेरिकी राजनीति विज्ञानी जोसफ नाय, ‘सॉफ्ट पावर’) के तहत भी विदेश नीति में किसी भी जटिल स्थिति में सीधे सामरिक या वाणिज्यिक ताकत दबाव की बजाय देश के नेता विशेष के व्यक्तित्व का खुला सहारा लिया जाने लगा है. ट्रंप, शी, पुतिन तथा भारत के प्रधानमंत्री आज अक्सर संस्कृति, पारंपरिक दर्शन और राजनीतिक नैतिकता का हवाला देकर कूटनीति का संचालन खुद करते हैं.
कुल मिलाकर विश्व राजनय में अमेरिका, चीन, रूस सब गर्म राजनय तो कायम रखे हैं, लेकिन साथ ही प्रधान नेता की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय (योग दिवस) या नया साल मनाना, विदेश यात्रा के दौरान प्रवासी समुदायों के लिए खास भेंट आयोजित कराना, रंग-बिरंगे पारंपरिक परिधानों में देश में आये विश्व नेताओं और उनके परिवारों को अपने देश के वस्त्रादि तोहफे में देकर, भव्य डिनर या चाय पिलाते हुए अंतरंग वार्ता से नर्म राजनय को विश्व राजनय का महत्वपूर्ण और वजनी हथियार बना दिया गया है.
नर्म राजनय के आलोचकों की राय में ऐसे राजनय को बहुत वजन देना सही नहीं, क्योंकि उसकी सफलता मापने का कोई पैमाना नहीं होता. हो सकता है कि आज की जटिल दुनिया में यह परंपरागत धारणा बहुत सही न हो. संचार तकनीकी से जुड़ते युग में देशों की संप्रभुता और प्रगति अंतरराष्ट्रीय पटल पर दमदार तरीके से दर्ज कराने के लिए नंगी ताकत की बजाय कला संस्कृति के सौम्य वाहक बने शीर्ष नेताओं के बीच निजी मिलन और दार्शनिकता के विनिमय का अपना खास मोल है.
लेकिन फिर भी राजनीति के अधिकतर जानकार यह मानते हैं कि नर्म राजनय राष्ट्र के शीर्ष नेताओं के द्वारा खुद अपने हाथों लेकर निजी न बनाना-चलाना जोखिमभरा है. चीन ने यहां संतुलन रखा है. उसका शीर्ष नेतृत्व गंभीर और चुप्पा है.
सीमित शब्दों में बहुत जरूरत होने पर ही वह अपना मंतव्य सार्वजनिक पटल पर व्यक्त करता है. नर्म राजनय का काम उसने देश की सरकारी, अर्धसरकारी व निजी सांस्कृतिक संस्थाओं, इकाइयों, कलाकारों, लेखकों के शिष्टमंडलों को सौंप रखा है, ताकि वे नर्म राजनय को दूतावासों से जोड़कर लगातार यथासमय विदेश में जाकर देश की दिशा-दशा और परंपरा की बाबत विश्वस्त जानकारी देकर भय और सौहार्द का माहौल एक साथ रचते रहें.
मेलबोर्न की यात्रा के दौरान मैंने देखा कि वहां चीनी कंफ्यूशियस संस्थान बहुत सुथरे योजनाबद्ध तरीके से स्थानीय दूतावास की पूर्णकालिक मदद लेते हुए नर्म राजनय का दमदार इस्तेमाल कर ऑस्ट्रेलिया में चीनी निवेश और व्यापार के पक्ष में काम कर रहे हैं, वहीं भारतीय दूतावास का रुख गैर राजनीतिक भारतीय शिष्टमंडलों, साहित्यिक समारोहों और स्थानीय हिंदी-प्रचार संगठनों को लेकर अपेक्षया ठंडा बना हुआ है. वे शायद गतिशील तब होते हों, यदि उनको बताया गया हो कि कोई मान्य मंत्री जी या सरकारी बड़े बाबू भी भारत से आयी शिष्टमंडली में शामिल किये गये हैं.
हमारे विदेश विभाग की संस्था आइसीसीआर यदा-कदा कलाकारों और नाटक मंडलियों को बाहर भेजती दिखती है, लेकिन उसका काम बहुत अनुग्रहपूर्ण तरीके से और भारतीय भाषा तथा परंपरा से किसी हद तक दूर खड़े विदेश सेवा के अफसरान के हाथों ही निबटाया जाता रहा है.
खुद संस्था के भीतरी लोग यदा-कदा मित्रों के आगे सरकार से मिलनेवाली फंडिंग के अपर्याप्त होने का रोना रोते दिखते हैं.
इसकी ताजा बानगी कनाडा के प्रधानमंत्री के भारत दौरे के समय बार-बार देखने को मिली, जब वे मुंबई जाकर सपरिवार बॉलीवुड के बड़े सितारों से मुलाकात कर फोटो खिंचाते रहे. यह कहना जरूरी है कि नर्म राजनय सुंदर नयनाभिराम भले हो, उसकी अपनी साफ सीमाएं हैं. किसी भी देश की प्रगति और उसकी भावी दशा-दिशा की बाबत विश्व की राय अंतत: उसके सामाजिक विकास, अर्थ जगत तथा निवेशकों की राय से मिले ठोस आंकड़ों से ही पक्की तौर से बनती है.
बड़े नेता चाहे जितने भी अच्छे वक्ता और निजी स्तर पर साफ-सुथरेपन के प्रमाणित अधिकारी क्यों न हों, अगर देश में महिलाओं की तादाद लगातार कम हो रही हो, बलात्कार और संगीन यौन अपराध बढ़ रहे हों, बेरोजगारी बढ़ रही हो और कृषि में गिरावट दर्ज हो रही हो, सीमा पार के तमाम देशों की त्योरियां चढ़ी हुई हों, और वे भारत के पारंपरिक शत्रुओं की तरफ साफ मित्रता दिखा रहे हों, तो मानना ही पड़ता है कि राजनय की दोनों समांतर पटरियों की शक्ल और उनके बीच बिना समय खोये सही अनुपात बिठाना बहुत जरूरी बन गया है.