क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
पिछले दिनों परिवार के एक सदस्य गंभीर रूप से बीमार पड़ गये. कुछ निकट परिजनों को इसकी सूचना दी गयी, तो यह खबर सभी रिश्तेदारों और मित्रों तक पहुंच गयी. लोग फोन करने लगे, और सब अस्पताल की तरफ दौड़ पड़े. कोई घर से खाना बनवाकर लाया, तो कोई चाय, तो कोई नमकीन. कोई ढेर सारे फल ले आया. खुद ही लोगों ने अस्पताल में रात में रुकने के लिए अपनी बारी लगा ली.
खून की जरूरत पड़ी, तो विदेश में रहनेवाले एक लड़के ने व्हाॅट्सएप पर खून का ग्रुप लिखकर एक रिश्तेदार का नंबर डाल दिया और खून देने के लिए अनजान लोगों के फोन आने लगे. यह बताने पर कि खून का इंतजाम हो गया, कहने लगे कि जब भी जरूरत हो, उन्हें फोन किया जा सकता है. एक समय ऐसा भी था कि खून की जरूरत बड़ी मुश्किल से पूरी होती थी, मगर आज तकनीक ने इसे कितना आसान बना दिया है कि सूचना मिलते ही मददगार कहीं से भी उमड़ पड़ते हैं.
चाहे परिजन, चाहे अपरिचित सभी मुसीबत को दूर करने के लिए अपने-अपने उपाय करने लगते हैं. यहां भी अस्पताल में कोई हनुमान चालीसा का जाप करने लगा, तो कोई महामृत्युंजय का पाठ. किसी ने मन्नत मांगी कि अगर मरीज ठीक हो गया, तो गरीब बच्चों को खाना खिलायेगा. किसी ने कहा कि वह चालीस सोमवार का व्रत करेगा. कोई फौरन भिखारियों को दान करने चला गया. इस सबके पीछे छिपी हुई यही इच्छा कि जैसे भी हो, हमारा मरीज ठीक हो जाये. बाकी बातें बाद में देखी जायेंगी. सब लोग मरीज को तरह-तरह से ढांढस बंधाने की कोशिश में भी जुट गये.
विदेश में रहनेवाले बच्चे यह सपोर्ट सिस्टम देख-देखकर चकित होने लगे. वहां इस तरह की मदद मिलना दूर की बात है. पश्चिम में इस तरह के सेवा भाव को ‘केयर इकाेनाॅमी’ कहा जाता है. दुखद यह भी है कि वहां हर प्रकार की सेवा के बदले पैसे वसूलने की चाहत भी देखी जा सकती है. अपने देश में अतिथि और बीमार की सेवा तो जैसे हमारे जीन्स में है.
हालांकि, अब इस तरह की बातें कम होती जा रही हैं. मगर, किसी विपत्ति के समय परिवार की जिस ताकत का एहसास होता है, यह लगता है कि हम अकेले नहीं हैं, हमारी सहायता करने के लिए परिवार की एक अभेद्य दीवार मौजूद है, दो हाथों के मुकाबले बीसियों संभालनेवाले हाथ हैं, यह भावना अद्भुत है. यह बात न केवल बीमार, बल्कि उसके परिजनों को असीमित शक्ति देती है. शक्ति का यह एहसास पश्चिमी समाजों में ढूंढे से नहीं मिलता है. शायद कहीं और मिल भी नहीं सकता है.
आज जब हमारे यहां संयुक्त परिवार अपना रूप खोते जा रहे हैं, उन्हें पिछड़ेपन और गैर-प्रगतिशीलता के स्वरूप के रूप में पेश किया जाता है, तो शायद इसी बात की जरूरत है कि परिवार की इस ताकत के स्वरूप को कैसे बचाये-बनाये रखा जाये. कैसे परिवार के समर्थन को बाहरी शक्तियों के उस दबाव से बचाया जाये, जो उसे हर हाल में तोड़ने पर आमादा हैं.